अल्लाह के तमाम पैग़म्बरों पर ईमान

अल्लाह के तमाम पैग़म्बरों पर ईमान

अल्लाह ने अपनी महान तत्वदर्शिता और अपनी विस्तृत दयालुता के आधार पर इन्सानों को व्यर्थ और निरुद्देश्य नहीं छोड़ा बल्कि उनके पास अपने दूतों (रसूलों) को शुभ समाचार देने वाला और सचेत करने वाला बनाकर भेजा।

“ये सारे रसूल शुभ समाचार देने वाले और सचेत करने वाले बनाकर भेजे गए थे ताकि उनको भेज देने के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में तर्क न रहे और अल्लाह हरहाल में प्रभावशाली और तत्वदर्शी है।(क़ुरआन, सूरः अन-निसा : 165)

अल्लाह ने हर समुदाय (उम्मत) में अपना रसूल भेजा।

“अल्लाह की बन्दगी करो और बढ़े हुए अवज्ञाकारी की बन्दगी से बचो।

(क़ुरआन, अन-नह्स : 36)

इसी तरह अल्लाह फ़रमाता है—

“और कोई समुदाय ऐसा नहीं हुआ है जिसमें कोई चेतावनी देने वाला न आया हो।                                

(क़ुरआन, फ़ातिर : 24)

क़ुरआन का फ़ैसला है कि अल्लाह लोगों से उस वक़्त तक हिसाब न लेगा और उनको उस वक़्त तक दण्ड न देगा जब तक कि वह अपने पैग़म्बरों को भेजकर, उन तक अपना सन्देश न पहुँचा दे और उन्हें उनके वे दायित्व स्पष्ट रूप से न बता दे जो उनपर मानव होने के नाते लागू होते हैं। इस तरह उन पर उनके रब के तर्क पूरे हो जाएँ।

“और हम यातना देने वाले नहीं हैं जब तक कि (लोगों को सत्य और असत्य का अन्तर समझाने के लिए) एक सन्देशवाहक न भेज दें।” (क़ुरआन, बनी-इसराईल : 15)

इसी लिए धार्मिक विद्वानों का मत है कि विभिन्न गै़र-मुस्लिम क़ौमों पर उस वक़्त तक तर्क पूरे न होंगे और काफ़िर (इन्कार करने वाले) उस वक़्त तक किसी दण्ड के पात्र/भागीदार न होंगे जब तक कि उनके पास इस्लाम की दावत साफ़ व स्पष्ट रूप में और इस दीन पर सोच-विचार व अध्ययन की ओर आकर्षित करने वाले ढंग में न पहुँच जाए। जहाँ तक अपूर्ण और विकृत धर्म-प्रचार का सम्बन्ध है तो इससे किसी भोले-भाले या अपनी अलग राय रखने वाले व्यक्ति पर तर्क पूर्ति नहीं होती।

यह एक प्रमाणित सत्य है कि मानव समाज पहले भी नबियों की रिसालत पर आश्रित रहा है और अब भी है। अल्लाह की सृष्टि में नबी सबसे पवित्र सबसे श्रेष्ठ सबसे ज़्यादा बुद्धि और विवेक रखने वाले अस्तित्व हैं।

“अल्लाह भली-भाँति जानता है कि अपना सन्देश पहुँचाने का काम किससे ले और किस प्रकार ले। (क़ुरआन, अल-अनाम : 6:124)

इसका कारण यह है कि अकेली मानव बुद्धि सारे सत्य के स्पष्ट करने के लिए के लिए काफ़ी नहीं विशेषतः इस सम्बन्ध में कि कौन-कौन से कर्म अल्लाह को प्रिय और पसन्द हैं? इसी कारण इन्सान को एक ऐसे मददगार की ज़रूरत हुई जो उसकी ग़लतियों में सुधार कर सके और उसे भटकने से बचाए।

ये सहायक अल्लाह की प्रकाशना (वह्य) है। यह वह्य उन बातों में भी जहाँ तक बुद्धि की पहुँच सम्भव नहीं है नूरुन अला नूर (प्रकाश पर प्रकाश) की हैसियत रखती है।

रसूलों को अल्लाह ने यह ज़िम्मेदारी दी कि वे इन्सानों को अल्लाह का सीधा रास्ता दिखाएँ। सन्मार्ग में बन्दों के वे तमाम कर्म सम्मिलित हैं जिन्हें अल्लाह पसन्द करता है।

नबियों की ज़िम्मेदारी है कि उन महत्वपूर्ण समस्याओं में जिनमें मानव बुद्धि मुश्किल से ही कोई सामूहिक निर्णय ले सकती है इन्सानों को न्याय की राह दिखाएँ। जैसा कि अल्लाह फ़रमाता है—

“हमने अपने रसूलों को साफ़-साफ़ निशानियों और मार्गदर्शनों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और तुला अवतरित की ताकि लोग इन्साफ़ पर क़ायम हों।

(क़ुरआन, अल-हदीद : 57:25)

नबियों का दायित्व है कि लोगों के आपसी झगड़ों और मतभेद का फ़ैसला करके उन्हें अल्लाह के आदेश का पालन करने पर उभारें, जिसे एक ईमान रखने वाला व्यक्ति रद्द नहीं कर सकता।

अल्लाह ने फ़रमाया है

“आरम्भ में सब लोग एक ही मार्ग पर थे। (फिर यह स्थिति शेष न रही और विभेद प्रकट हुए) तब अल्लाह ने नबी भेजे जो सीधे मार्ग पर चलने पर शुभ सूचना देने वाले और कुटिल चाल के परिणामों से डराने वाले थे, और उनके साथ सत्यानुकूल पुस्तक उतारी ताकि सत्य के विषय में लोगों के बीच जो विभेद उत्पन्न हो गए थे, उनका निर्णय करे।

(क़ुरआन, अल-बक़रा : 2:213)

इतिहास और मानवजाति के अनुभव ने यह साबित कर दिया है कि तमाम इन्सानों को अपने से श्रेष्ठ एक ऐसे मार्गदर्शक की ज़रूरत है जो उनको ऐसा सन्मार्ग दिखा सके जिसमें उनकी भलाई और सफलता हो। उन्हें केवल उनकी बुद्धियों के सहारे न छोड़ दे। ऐसा बहुत बार होता है कि लोगों के सामने भलाई एवं बुराई एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं, मगर फिर उनपर इच्छाओं, स्वार्थों और व्यक्तिगत एवं सामाजिक हितों का प्रभुत्व हो जाता है जिसके नतीजे में वे ऐसे क़ानूनों और नियमों को उचित ठहरा लेते हैं जो उनके लिए लाभदायक नहीं बल्कि हानिकारक होते हैं। हम देख चुके हैं कि अमेरिका के कुछ राज्यों में शराब के हानिकारक सिद्ध होने के आधार पर उसे अवैध (हराम) घोषित करने की कोशिश की गई, मगर फिर उनपर स्वार्थ ने क़ाबू कर लिया और उन्होंने उसके वैध होने के हवाला से एक क़ानून जारी किया जिसके आधार पर शराब बनाना, उसका प्रचार करना, उसे पीना और उसका कारोबार करना सबका सब वैध ठहरा।

अल्लाह ने अपनी महान तत्वदर्शिता के आधार पर हर क़ौम में अपने रसूल नियुक्त किए ताकि उसका सन्देश एक निश्चित काल के साथ विशिष्ट हो और वह सबसे अन्त में एक ऐसे पैग़म्बर को नियुक्त करे जो समय एवं आयाम के साथ बन्धे हुए भूतपूर्व क़ानून के कुछ आदेश को अल्लाह की इच्छानुसार रद्द कर दे।

अल्लाह फ़रमाता है

“हमने तुममें से हर एक के लिए एक धर्म-विधान और कार्य-प्रणाली निर्धारित की।                                 

(क़ुरआन, अल-माइदा : 5:48)

नबी कभी पूर्व शरीअत का भी अनुसरण करता है जैसा कि बनी-इसराईल के बहुत से नबियों ने किया। इसके बाद अल्लाह ने चाहा कि अपने अन्तिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को एक सार्वजनिक, स्थाई एवं बहुआयामी शरीअत के साथ भेजे। इसलिए हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के माध्यम से लागू की गई ईश्वरीय शरीअत आयाम के अनुसार सार्वजनिक है, समय के अनुसार स्थाई है और तमाम मानव समाज की सारी आवश्यकताओं को पूरा करने वाली है।

अल्लाह फ़रमाता है

“ऐ नबी, हमने तो तुमको दुनिया वालों के लिए दयालुता बनाकर भेजा है।

(क़ुरआन, अल-अंबिया : 21:107)

(लोगो) मुहम्मद (सल्ल॰) तुम्हारे पुरुषों में से किसी के पिता नहीं हैं, किन्तु वे अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक हैं, और अल्लाह को हर चीज़ का ज्ञान है।                            

(क़ुरआन, अल-अहज़ाब : 33:40)

“हमने यह किताब (क़ुरआन) तुम पर अवतरित कर दी है जो हर चीज़ को साफ़-साफ़ स्पष्ट करने वाली है और मार्गदर्शन एवं दयालुता और शुभ-सूचना है उन लोगों के लिए जो आज्ञाकारी हो गए हैं।(क़ुरआन, अन-नह्ल : 16:89)

अल्लाह जानता है कि अब मानवता अपने उत्थान के शिखर को पहुँच चुकी है और इस योग्य हो चुकी है कि उसके पास आख़िरी रसूल को आख़िरी किताब और आख़िरी शरीअत के साथ भेजा जाए और इस शरीअत में वे तमाम बुनियादी बातें शामिल कर दी जाएँ जो हर युग और हर स्थान के अनुसार हों। इसलिए इसमें हमेशगी के वे तमाम तत्व और सामर्थ्य एवं लचक के वो तमाम उत्प्रेरक शामिल कर दिए गए जिनके होते हुए यह काल (ज़माना) के उत्थान का साथ देने और हर रोग का इलाज ख़ुद इस्लाम की फ़ारमेसी से करने से असमर्थ नहीं।

अल्लाह ने इसके मूल में वो क्षमता और फैलाव रख दी है जो उसे हर सवाल का जवाब देने और बिना किसी कष्ट और बनावट के हर मुश्किल से छुटकारा दिलाने के क़ाबिल बनाती है।

इस्लामी आस्था की एक मुख्य विशेषता यह है कि अल्लाह की अवतरित की हुई तमाम किताबों और उसके द्वारा नियुक्त किए हुए तमाम रसूलों पर ईमान इसका एक स्तम्भ (रुक्न) है। इसके बिना ईमान दुरुस्त नहीं।

“कहो कि : हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस मार्गदर्शन पर जो हमारी ओर उतरा है और जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और याक़ूब की सन्तान की ओर उतरा था और जो मूसा और ईसा और दूसरे सभी पैग़म्बरों को उनके प्रभु की ओर से दिया गया था। हम उनके बीच कोई अन्तर नहीं करते और हम अल्लाह के मुस्लिम हैं।  

(क़ुरआन, अल-बक़रा : 2:136)

यह आस्था निर्माण करती है न कि विनाश। यह अपने से पहले की आस्था की पूर्ति करती है उसके सच्चे होने की पुष्टि करती है और उसे दुरुस्त करती है।

अल्लाह ने अपने रसूल से फ़रमाया—

(फिर हे नबी) ‘‘हमने तुम्हारी ओर यह किताब भेजी जो सत्य लेकर आई है और मूल किताब में से जो कुछ उसके आगे मौजूद है उसकी पुष्टि करने वाली और उसकी संरक्षक है।               

(क़ुरआन, अल-माइदा : 5:48)

 

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