अन्तिम ऋषि

अन्तिम ऋषि

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)&‘अन्तिम’ईशदूत क्यों?

एक बौद्धिक विश्लेषण

इन्सान को ज़िन्दगी जीने के लिए जिस ज्ञान और मालूमात की ज़रूरत होती है, उसमें से काफ़ी हिस्सा उसकी पंचेन्द्रियों [Five Senses–देखना (आंख), सुनना (कान), सूंघना (नाक), चखना (जीभ), छूना (हाथ), के माध्यम से उसे हासिल होता है। इसके साथ उसे बुद्धि-विवेक भी प्राप्त है जिसके द्वारा वह चीज़ों का और अपनी नीतियों, कामों और फ़ैसलों आदि का उचित या अनुचित, लाभप्रद या हानिकारक होना तय करता है। धर्म में विश्वास रखने वाले (और न रखने वाले भी) लोग जानते-मानते हैं कि ये पंचेन्द्रियां (और बुद्धि-विवेक) स्वयं मनुष्य ने अपनी कोशिश, मेहनत, सामर्थ्य, इच्छा और पसन्द से नहीं बनाई हैं, बल्कि धर्म को माननेवाले लोगों का विश्वास है कि इन्हें ईश्वर ने बनाकर मनुष्य को प्रदान किया है। ईश्वर ने मनुष्य का सृजन किया है और पंचेन्द्रियां व बुद्धि-विवेक मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग व अंश हैं।

ईशदूत की आवश्यकता

तजुर्बा बताता है और पूरा इतिहास गवाह है कि ज्ञानोपार्जन के सिर्फ़ उपरोक्त साधनों (पंचेन्द्रियों और बुद्धि) पर ही पूरी तरह से निर्भर होकर किए जाने वाले काम और फै़सले कभी बहुत ग़लत और कभी बड़े हानिकारक व घातक भी हो जाते हैं। इससे साबित होता है कि इन्सान को उपरोक्त साधनों के अतिरिक्त भी किसी साधन की परम आवश्यकता है। ऐसा साधन, जो इन्सान को वह ज्ञान और मालूमात दे, जो उसकी पंचेन्द्रियों की पहुंच से बाहर है। यह साधन जिस माध्यम से प्राप्त होता है वह ‘ईशदूत’ है, जिसे ईश-सन्देष्टा, ईश-प्रेषित, रसूल, नबी, पैग़म्बर और Prophet आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता है।

कुछ बुनियादी सवाल हैं जिनका इन्सान और समाज से बड़ा गहरा ताल्लुक़ और जो पंचेन्द्रियों से अर्जित ज्ञान के दायरे से बाहर हैं, जैसे:

1.    इन्सान क्यों–अर्थात् किस उद्देश्य से पैदा किया गया है? क्या सिर्फ़ ‘खाओ-पियो मौज करो’, के उद्देश्य से? लेकिन यह तो पशु-पक्षियों आदि की हैसियत हो सकती है, मनुष्य जैसे उच्च व प्रतिभाशील प्राणी की नहीं।

2.    मनुष्य तमाम प्राणियों में उच्च व प्रतिभामय है तो क्यों है और कैसे है?

3.    मनुष्य का स्रष्टा कौन है, उसके गुण क्या-क्या हैं? मनुष्यों, स्रष्टा और बाक़ी सृष्टि के बीच संबंध की उचित व उत्तम रूपरेखा, सीमा और तक़ाज़ा क्या है?

4.    इस नश्वर जीवन की वास्तविकता क्या है? मरने के बाद क्या है? शरीर सड़-गलकर नष्ट हो जाता है और बस? फिर मनुष्य के अच्छे या बुरे कामों का वह हिसाब, इन्साफ़ और बदला कहां गया, जो इस जीवन में उसे

न्यायसंगत रूप में पूरा या अधूरा या कुछ भी नहीं मिल सका था। क्या ईश्वर महान, दयालु, कृपाशील की यह दुनिया किसी ‘‘चौपट राजा की अन्धेर नगरी’’ समान है?

इन और इनसे निकले अनेकानेक अन्य सवालों का सही जवाब पाना मनुष्य की परम आवश्यकता है, क्योंकि इनके सही या ग़लत या भ्रमित होने पर मनुष्य के चरित्र, आचार-विचार, व्यवहार का तथा पूरी सामाजिक व सामूहिक व्यवस्था का अच्छा या बुरा होना निर्भर है। ‘ईशदूत’ इसी आवश्यकता को पूरा करता है। मनुष्य तथा उसका समाज इससे निस्पृह और बेनियाज़ हरगिज़ नहीं हो सकता। ऐसी निस्पृहता बड़ी तबाही का कारक बनती है।

ईशदूत-श्रृंखला और उसकी अन्तिम कड़ी

ईशदूत के महत्व, आवश्यकता व अनिवार्यता के अनुकूल धरती पर इन्सान के वजूद के साथ ही ईशदूतत्व (नुबूवत/रिसालत) का सिलसिला आरंभ हो गया। इस्लामी ज्ञान-स्रोतों के अनुसार हज़ारों वर्ष पर फैले मानव इतिहास में लगभग सवा-डेढ़ लाख ईशदूत हुए। क़ुरआन के अनुसार (13:7) हर क़ौम में पथ-प्रदर्शक (हादी अर्थात् ईशदूत) भेजे गए। कभी एक के बाद दूसरे और कभी एक ही साथ कई ईशदूत, युग, क्षेत्र और जातियों व क़ौमों की आवश्यकताओं, समस्याओं और परिस्थितियों के अनुकूल ईश्वरीय मार्गदर्शन के अन्तर्गत इन्सानों और समाजों का पथ-प्रदर्शन करते, उन्हें विशुद्ध एकेश्वरवाद का आह्वान करते तथा ईश्वरीय आदेशों-निर्देशों और नियमों के अनुसार जीवन बिताने की शिक्षा व प्रशिक्षण देते हुए स्वयं को साक्षात् आदर्श (Role Model) के रूप में पेश करते रहे। उन ईश-सन्देष्टाओं में से कुछ पर ‘ईश-ग्रंथ’ भी अवतरित हुए। हर ईशदूत ने स्वयं को स्पष्ट शैली में ईश्वर का दास (बन्दा, सेवक) और सन्देष्टा व रसूल घोषित किया और सारे ईशदूतों ने लोगों के सामने इस भ्रम की तनिक भी गुंजाइश न रख छोड़ी कि वे स्वयं ईश्वर थे, ईश्वर का अंश थे, ईश्वर का अवतार थे, ईश्वर का बेटा थे या उनमें कुछ दैवी गुण थे, दैवी (ख़ुदाई) शक्ति-सामर्थ्य थी।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इस लंबे सिलसिले की अन्तिम कड़ी थे। यह एक मिथ्या धारणा प्रचलित है कि आप (सल्ल॰) इस्लाम धर्म के संस्थापक थे। सच यह है कि सारे ईशदूत मूल ईश्वरीय धर्म ‘इस्लाम’ के वाहक और प्रचारक थे और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) सबके आख़िर में ईश्वर की ओर से ‘सत्य धर्म इस्लाम’ के वाहक व प्रचारक-नबी/रसूल/पैग़म्बर थे। आप (सल्ल॰) पर अन्तिम ईशग्रंथ ‘क़ुरआन’ आपके जीवनकाल की 23 वर्षीय अवधि में अवतरित हुआ, जिसमें वही सारा सत्य और मूल-सत्य समाहित था जो पहले के ईशग्रंथों में था। सभी अस्ल ईशग्रंथों की समान (Common) मूल धारणाएं (विशुद्ध एकेश्वरवाद, परलोकवाद और ईशदूतवाद) स्पष्ट व पारदर्शी (Transparent) रूप में ईशग्रंथों के इस अन्तिम संस्करण ‘क़ुरआन’ में अंकित व संग्रहित करके अन्तिम ईश-सन्देष्टा के सुपुर्द कर दी गईं कि अब कोई ईशदूत नहीं आने वाला, आप पूरी मानवजाति के लिए, तथा सदा-सदा के लिए अवतरित यह दिव्य ग्रंथ अल्लाह के बन्दों के सुपुर्द कर दें। आप (सल्ल॰) ने अन्तिम ईशदूत की यह भारी और नाजु़क ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाकर संसार से परलोक को प्रस्थान किया।

‘अन्तिम’ईशदूत क्यों और कैसे?

मस्तिष्क में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य को ईश्वरीय मार्गदर्शन की, अतः मार्गदर्शक ईशदूत की आवश्यकता सदा से चली आ रही है, तो ईशदूत-श्रृंखला का अन्त क्यों हो गया और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) अन्तिम ईशदूत क्यों हुए? आप (सल्ल॰) के बाद भी यह सिलसिला जारी न रहने में क्या तर्क है? इस प्रश्न का उत्तर समझने में आसानी के लिए पहले इस बात पर विचार कर लेना उचित होगा कि भूतकाल में ईशदूतत्व का सिलसिला ईश्वर ने जारी ही क्यों रखा।

प्राचीनकाल में ईशदूतत्व का सिलसिला जारी रहने के कारण

गुज़रे ज़मानों में परिस्थितियां हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के ज़माने से भिन्न थीं। उनमें स्थायित्व बहुत कम, परिवर्तनशीलता बहुत ज़्यादा तथा काल व क्षेत्र के स्तर पर विविधता व विषमता काफ़ी होती थी। समाज व संस्कृति क्रमविकास (Evolution) के दौर से गुज़र रही थी। स्थितियां कुछ इस प्रकार की थीं:

1.     आरंभ काल में सामाजिकता व सभ्यता (Civilization) न थी। नागरिकता का पूर्ण अभाव था। आबादी बहुत कम और एक या कुछ क्षेत्रों तक सीमित थी। इसी के अनुसार ही इन्सानों की आवश्यकताएं व समस्याएं भी थीं और उन्हीं के अनुकूल लोगों को ईश-मार्गदर्शन की आवश्यकता थी जिसके लिए इस्लाम की तीन शाश्वत मूलधारणाओं के साथ जीवन-व्यवस्था और जीवन-विधान के बहुत कम नियमों और तदनुसार सीमित मार्गदर्शन की आवश्यकता थी। इसी की अनुकूलता में ईशदूत नियुक्त किए जाते रहे और कम कालान्तर में रसूल आते रहे।

2.    समय बीतते-बीतते परिस्थितियां बदलती गईं। आबादी बढ़ती गई। जीवनशैली में बदलाव व विकास आता गया। धीरे-धीरे सामूहिकता उत्पन्न होने लगी। सभ्यता-संस्कृति बनने लगी। आवश्यकताओं और समस्याओं में भी परिवर्तन और बढ़ोत्तरी होने लगी। इसी के अनुकूल ही ईश्वरीय मार्गदर्शन, नियमों और शिक्षाओं की आवश्यकता हुई और पहले से अधिक और विस्तृत शिक्षाओं के साथ ईश्वर एक के बाद एक, नए-नए ईशदूत नियुक्त करता रहा।

3.    एक ईशदूत के देहावसान के बाद उसके द्वारा दी गई ईश्वरीय शिक्षाओं को लोग या तो भूलते गए या उन्हें दूषित व भ्रष्ट करते गए या जान-बूझकर उन्हें छोड़ते गए। पूरी परिस्थिति को फिर से शुद्धता से परिपूर्ण करने के लिए एक के बाद एक ईशदूत नियुक्त किया जाता रहा। यह सिलसिला जारी रहा।

4.    नागरिकता उत्पन्न हुई। साथ ही बढ़ती हुई आबादी जीवनयापन-सामग्री अर्जित करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित होने लगी। कुछ ज़माने बाद विभिन्न और दूर-दूर के क्षेत्रों में आबादियां फैल गईं। समाज बनने लगे। सामाजिक आवश्यकताएं और समस्याएं बढ़ने भी लगीं, बदलने भी लगीं। तब सारे क्षेत्रों, समाजों और जातियों व क़ौमों में एक ही समय में कई-कई ईशदूत नियुक्त हुए। अलग-अलग परिस्थितियों के अनुकूल ईश्वरीय मार्गदर्शन अवतरित होने और ईशदूत नियुक्त किए जाने का सिलसिला जारी रहा।

5.    ज्ञान में वृद्धि और सभ्यता-संस्कृति में विकास होते-होते वह प्रौढ़ता और परिपक्वता (Maturity) की ओर अग्रसर होती गई। समाज की ज़रूरतें, समस्याएं तथा जटिलताएं भी बढ़ीं। इसी परिस्थिति के अनुकूल ईश्वरीय नियमों, शिक्षाओं और आदेशों के साथ नए-नए ईशदूतों का क्रम जारी रहा।

6.    बोलियों ने भाषा का रूप लिया और भाषाओं को लिपि का लिबास मिला। लेखनशैली उत्पन्न हुई। ईशदूत आए और उन पर अवतरित ईशवाणी लिखित रूप में ईशग्रंथ की सूरत में समाज को उपलब्ध होने लगी। लेकिन लिखित सामग्री (ईशवाणी) को मानवीय हस्तक्षेप से पूर्णतः सुरक्षित रखे जाने का प्रावधान सरल न था, अतः ग्रंथ में लोग कमी-बेशी भी करते रहे, मानवीय विचारों और कथनों की मिलावट भी होती रही। इस कारण बार-बार ईशदूत नियुक्त किए जाते रहे जो ईशादेशों को विशुद्ध रूप में समाजों के समक्ष प्रस्तुत करते और तदनुसार लोगों के चरित्र-निर्माण और समाज-संरचना का काम करते रहे। हर ईशदूत अपनी-अपनी क़ौम में यह काम करता रहा और सदियों-सदियों तक यह सिलसिला जारी रहा।

ईशदूत–श्रृंखला के समापन की परिस्थिति

मानव-समाज और सभ्यता की निरन्तर प्रगतिशीलता, विकास, उन्नति व अग्रसरता का सिलसिला आगे बढ़ते-बढ़ते एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हुई, जो पहले के ज़मानों से बड़ी हद तक भिन्न भी थी और उत्कृष्ट भी। सभ्यता अपनी परिपक्वता के चरण से काफ़ी क़रीब होने की स्थिति में आ गई।

1.     इन्सानी आबादी, पृथ्वी के बड़े हिस्से में फैल गई। ज्ञान (Knowledge) ने विज्ञान (Sciences) का रूप भी धारा। यातायात, आवाहन, प्रवहन और संचार के साधन बने और बढ़े। क़ौमों और जातियों में दूरियां घटीं, मेलजोल बढ़ा। विचारों, मान्यताओं, धारणाओं का लेन-देन संभव हुआ। विभिन्न क़ौमों की आवश्यकताओं, समस्याओं और परस्पर निर्भरता में तालमेल व समानता तथा आदान-प्रदान की स्थिति बनी। बौद्धिक स्तर ऊंचा हुआ।

2.    काग़ज़ और रोशनाई का आविष्कार और क़लम का उपयोग हुआ। लेखन प्रणाली विकसित हुई। पत्र, संधियां, पुस्तकें और ग्रंथ लिखे जाने लगे। महत्वपूर्ण लिखित सामग्री को सुरक्षित रखना और उसकी प्रतियां बनाना संभव हुआ। साहित्य अस्तित्व में आया और विकसित भी होने लगा।

3.    ऐसा युग आया जो इस बात की संभावना दर्शाता था कि उसके जाते-जाते एक ऐसा युग आएगा, जब सभ्यता में विकास बहुत तीव्र और व्यापक होगा। कोई भू-भाग और उसमें रहने-बसने वाला समाज एक-दूसरे से बिल्कुल कटा हुआ, अपरिचित, अलग-थलग पड़ा न रह जाएगा। मनुष्य का ज्ञान स्तर, बौद्धिक स्तर काफ़ी ऊंचा उठ जाएगा और शायद कुछ सदियों बाद इन्सान एक वैश्वीय वृहद समाज का अंग बनने में कोई बड़ी कठिनाई न पाएगा।

4.    मानव-सभ्यता निकट भविष्य में ऐसे साइंसी व त

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