बढ़ती जनसंख्या: वरदान या अभिशाप?

बढ़ती जनसंख्या: वरदान या अभिशाप?

देश की जनसँख्या इस समय 137 करोड़ के लगभग है और चीन के बाद भारत विश्व में दुसरे स्थान पर है। 2011 की जनगणना में वृद्धि-दर में 3.84% की कमी देखी गई परन्तु फ़िर भी अनुमान है की 2024 तक भारत चीन को पीछे छोड़ता हुआ सर्वाधिक जनसँख्या वाला देश बनने का गौरव प्राप्त कर लेगा। भारत का क्षेत्रफल पूरे विश्व का मात्र 2.4% है, परन्तु इसपर विश्व की लगभग 18% जनसँख्या आबाद है। यही कारण है की लोगों में सदा यह आशंका बनी रहती है की  तेज़ी से बढती हुई जनसंख्या से ग़रीबी में वृद्धि होगी, देश के सकल घरेलु उत्पाद(जीडीपी) में कमी आएगी, विकास-दर भी धीरी रहेगी और देश एक बेहतर कल से वंचित रह जाएगा।    
इधर पिछले एक-दो वर्षों से देश में बढ़ती हुई जनसंख्या फ़िर से चर्चा का विषय बन गई है और चारों ओर से आवाजें उठने लगी हैं की सरकार इसको रोकने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए। इसी को देखते हुए अप्रैल 2017 में असम सरकार की ओर से एक ऐसा कानून लाने की घोषणा की गई जिसमें दो से अधिक संतान वाले लोगों को सरकारी नौकरी से दूर और अन्य सभी सरकारी योजनाओं और सुविधाओं से वंचित रखे जाने  की बात की गई है। इसी वर्ष दो-सन्तान पालिसी का कानून बनाने के लिए एक बिल संसद में भी पेश किया गया पर उसपर अभी बहस होना बाक़ी है। कुछ लोगों ने सरकार से इस बिल को तुरन्त पास करने का निर्देश देने के लिए सर्वोच्य न्यायलय में याचिका भी दी थी पर मार्च 2018 में वह ख़ारिज कर दी गई। दिसम्बर 2018 में कुछ सांसदों ने अपनी ओर से इसी सम्बन्ध में एक निजी बिल लाने की बात भी की तो दूसरी ओर यह आवाजें भी सुनाई दे रही हैं की दो से अधिक बच्चे पैदा करने वालों से वोट का अधिकार छीन लेना चाहिए तथा दो के बाद पैदा होने वाले बच्चों को भी इन अधिकारों से वंचित रखा जाना चाहिए। जनसँख्या पर चल रही इस चर्चा में स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली के लाल किले से दिए गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण ने आग में घी डालने का काम किया जब उन्होंने बड़े परिवार वालों को एक प्रकार से दीवार से लगाते हुए छोटे परिवार वालों को ‘देशप्रेमी’ कह डाला और बढती हुई जनसँख्या को ‘जनसँख्या विस्फोट’ की संज्ञा दे डाली। उसके बाद से इस विषय पर बयानबाज़ी ने तेज़ी पकड़ ली है और हर कोई इस पर नियंत्रण करने की बात करने लगा है।   

पूर्व में किए गए प्रयत्न 
बढ़ती हुई जनसंख्या को लेकर देश में उठने वाली यह आवाज़ें नई नहीं हैं। पिछले पचास वर्षों पर यदि दृष्टि डाली जाए तो इस विषय पर चर्चा भी होती रही है और पूर्व की सरकारों ने आबादी पर नियंत्रण के प्रयत्न भी किए हैं। 1976 में उस समय पूरे देश में अशांति और भय की स्थिति उत्पन्न हो गई जब आपातकाल के समय में तेज़ी से बढती हुई जनसँख्या को रोकने के लिए नसबन्दी का देशव्यापी अभियान चलाया गया। कहा जाता है कि उस समय 60 लाख से भी अधिक स्त्री-पुरुष की नसबन्दी की गई और इसके लिए लालच अथवा बल का उपयोग भी किया गया। गाँव-गाँव, शहर-शहर पोस्टर्स लगाए गए जिन पर नसबन्दी के फ़ायदे बताते हुए लिखा होता था “बस एक या दो बच्चे, होते हैं घर में अच्छे”, “एक, दो या तीन बच्चों के साथ, आपका घर होगा खुशहाल“,  “अधिक बच्चे यानि अधिक भोजन। संख्या अधिक, तो भूख भी अधिक आदि।“ बढ़ती हुई जनसँख्या को रोकने के प्रयत्न आपातकाल से पूर्व भी होते रहे हैं। 1971 और 1973 में भी नसबन्दी अभियान चलाए गए थे परन्तु उनमें बल प्रयोग नहीं हुआ था। उसके उपरान्त भी जनसँख्या नियंत्रण के प्रयत्न जारी रहे हैं और आज भी जारी हैं। परन्तु देश की जनसँख्या है की बढ़ती ही जा रही है और यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों से इस पर नियंत्रण की आवाजें फ़िर से तेज़ होने लगी हैं।

अन्य देशों की स्थिति
चीन भी, जो इस समय विश्व में जनसँख्या में सर्वप्रथम है, इस समस्या से झूझता रहा है। जिस समय भारत आपातकाल के नसबन्दी अभियान से बाहर आ रहा था, चीन अपनी आबादी पर नियंत्रण करने के प्रयत्नों पर विचार कर रहा था। अन्ततः 1979 में चीन में “प्रति परिवार सिर्फ़ एक बच्चा” की पालिसी लागू कर दी गई। एक से अधिक संतान होने पर परिवार पर न सिर्फ़ जुर्माना लगाया जाता था, उसे विभिन्न सरकारी सुविधाओं से वंचित भी कर दिया जाता था। परन्तु कुछ ही वर्षों में चीन में युवाओं की संख्या घटना शुरू हो गई और कार्यबल का संकट उत्पन्न होने लगा। 2015 तक यह संकट इतना गंभीर हो गया की सरकार अपनी इस पालिसी को बदलने पर बाध्य हो गई और उसे एक के बजाए दो संतानों की अनुमति देने का निर्णय करना पड़ा। चार वर्ष बाद भी अभी कार्यबल का यह संकट पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया है और वर्तमान सरकार संतान की संख्या में और छूट देने पर विचार कर रही है।   
पडोसी देश पाकिस्तान ने भी अपनी 20 करोड़ की आबादी में वृद्धि को रोकने का प्रयत्न करते हुए 2010 में राष्ट्रिय जनसँख्या नीति बनाई और 2025 तक प्रजनन दर(Fertility Rate) को 2.1 तक घटाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। सरकार लोगों को प्रोत्साहित कर रही है की वह संतानों में तीन वर्षों का अन्तर रखें और इसके लिए गर्भ-निरोधक साधनों का उपयोग करें।
1960 के दशक में वियतनाम(Vietnam) में दो-संतान की पालिसी लागू की गई थी, परन्तु अक्टूबर 2017 में उसने अपनी इस नीति में परिवर्तन कर संतानों की संख्या पर नियंत्रण को समाप्त कर दिया। 
पाठकों को यह जान कर आश्चर्य होगा की हमारे देश में जनसँख्या नियंत्रण के प्रयत्नों के विपरीत ऐसे भी देश हैं जो अपनी जनसँख्या को तेज़ी से बढाने के इक्षुक हैं और इसके लिए प्रयत्न भी कर रहे हैं।
रूस एक ऐसा देश है जो अपनी तेज़ी से घटती जनसँख्या को रोकने का प्रयत्न कर रहा है। 15 करोड़ की आबादी वाले रूस को संकट का सामना है कि 2050 तक उसकी आबादी में एक करोड़ की कमी आ सकती है और इसको रोकने के प्रयत्न में वहां की सरकार युवाओं को अधिक संतान पैदा करने के लिए विभिन्न तरीक़ों से प्रोत्साहित कर रही है।
दक्षिण कोरिया में, अनुमान है, कि यदि जनसँख्या इसी रफ़्तार से घटती रही तो सन 2750 वहां की आबादी ही समाप्त हो जाएगी। आबादी को तेज़ी से बढ़ाने के लिए सरकार कई तरह के प्रोत्साहन दे रही है जिनमें नगद इनाम के साथ ही अस्पतालों में होने वाले सारा ख़र्च दिया जाना भी शामिल है। इसी प्रकार जापान भी एक वृद्ध-लोगों वाला देश बन गया है और सरकार इस प्रयत्न में है की युवाओं को अधिक बच्चे पैदा करने पर उभारा जा सके। 
यूरोप के लगभग सभी देशों में जनसँख्या में कमी देखी जा रही है और इसे बढ़ाने के साथ ही वह दुसरे देशों से भाग कर आने वाले शरणार्थियों को कार्यबल में वृद्धि के लालच में अपने यहाँ प्रवेश की अनुमति भी दे रहे हैं। फ्रांस, जर्मनी आदि इसके कुछ उदहारण हैं। 

जनसँख्या वृद्धि से आशंकाएं
सन 1798 में इंगलैंड के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रॉबर्ट माल्थस ने जनसँख्या और संसाधन वृद्धि का एक ऐसा समीकरण प्रस्तुत किया जिसने पूरे विश्व को यह सन्देश दिया कि यदि जनसँख्या पर शीघ्र नियंत्रण नहीं लगाया गया तो संसाधन का घोर संकट पैदा हो जाएगा। माल्थस सिद्धांत के अनुसार जनसँख्या में वृद्धि ज्यामितीय अनुक्रम(Geometrical Progression) से होती है और संसाधन में अंकगणितीय अनुक्रम(Arithmetic Progression) से अतार्थ जनसँख्या भोजन की आपूर्ति की तुलना में तेज़ी से बढ़ेगी जिसके कारण भोजन आपूर्ति में सदैव कमी रहेगी। उनके अनुसार यदि जनसँख्या पर शीघ्र नियंत्रण नहीं लगाया गया तो लाखों लोग भुखमरी का शिकार हो जायेंगे। इस समस्या के समाधान के रूप में, माल्थस ने "नैतिक संयम" का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसके अनुसार लोगों को विवाह से पूर्व संयम निभाते हुए इसमें विलम्ब का अभ्यास करना चाहिए,  जहाँ आवश्यक हो नसबंदी अनिवार्य कर देनी चाहिए और उन  माता-पिता को दण्डित किया जाना चाहिए जिनके अपनी आय से अधिक संतान हों।
माल्थस के इस सिद्धांत ने पूरे विश्व को आशंकित और भयभीत कर दिया और हर तरफ़ जनसँख्या नियंत्रण की आवाज़ें उठने लगीं और आज तक उठ रही हैं। ऐसा माना जाने लगा कि तेज़ी से बढ़ती आबादी का समाज के विकास पर अत्यन्त हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, बेरोज़गारी और ग़रीबी में वृद्धि होगी, खाद्यपदार्थ का संकट उत्पन्न हो जाएगा, लोगों का जीवन-स्तर गिरने लगेगा, हर तरफ़ आर्थिक संकट पैदा होगा और सकल घरेलु उत्पाद(GDP) में भारी गिरावट आ जाएगी।  

जनसँख्या वृद्धि का दूसरा पक्ष 
दो सौ वर्ष पुराने माल्थस सिद्धान्त का दुनिया में आज भी बोलबाला है और पूरे विश्व में जनसँख्या रोकने के सारे प्रयत्न उसी से प्रेरित हैं। पर ऐसा भी नहीं है कि इसके विपरीत कोई दूसरा दृष्टिकोर्ण अब तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। 
1980 में अमरीका के एक अर्थशास्त्री जूलियन साइमन ने माल्थस के सिद्धान्त को चुनौती देते हुए कहा की जनसँख्या वृद्धि को लेकर समस्त आशंकाएं निराधार हैं और वास्तव में तो बढती जनसँख्या विकास के मार्ग में बाधक नहीं बल्कि सहायक है। उनके अनुसार बढ़ती हुई जनसँख्या से अन्तहीन संसाधन प्राप्त किए जा सकते हैं इसलिए इसे नकारात्मक रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। माल्थस के विश्व-स्थापित सिद्धान्त पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने बताया की पृथ्वी पर संसाधन की उत्पत्ति में निरन्तर वृद्धि होती रहती है और इसमें गिरावट के बजाए निरन्तर सुधार हो रहा है। उनका मानना था की मानव समाज अपनी बुद्धि और विवेक के प्रयोग से नित नए संसाधन की खोज करता रहता है और यही कारण है की उसके जीवनस्तर में लगातार सुधार हो रहा है। संसार में इंसानों की महत्ता को बताते हुए उन्होंने कहा की “इंसानों को बोझ समझने के बजाए उन्हें गुणकारी और लाभदायक व्यक्तित्व के रूप में देखा जाना चाहिए।“  

जनसँख्या का भय क्यों?
जनसँख्या से सम्बन्धित इन दोनों विचारधारा को आज के परिपेक्ष में देखा जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है की जूलियन साइमन के सिद्धान्त ने दो सौ वर्ष पूर्व दिए गए माल्थस के सिद्धांत को पूरी तरह ग़लत साबित कर दिया है। बढ़ती जनसँख्या के पश्चात विश्व में संसाधनों में कमी के बजाए वृद्धि हुई है। परन्तु यह आश्चर्यजनक है की विश्व भर में अर्थशास्त्री व मानवशास्त्री समय के साथ ग़लत साबित हो जाने के उपरान्त भी माल्थस के सिद्धांत को ही इस विषय में मार्गदर्शक मानते हैं और इसी के आधार पर जनसँख्या नियंत्रण नीति निर्धारित करते हैं। ऐसा क्यों? क्यों लोगों को कम संतान पैदा करने पर मजबूर किया जाता है? बलपूर्वक लोगों की नसबन्दी के अभियान क्यों चलाए जाते हैं?
अल-जज़ीरा टीवी पर 24 दिसम्बर 2018 पर प्रसारित एक रिपोर्ट के अनुसार कई दशकों पूर्व अमरीका के फोर्ड फाउंडेशन, रॉकफेलर फाउंडेशन और जनसंख्या परिषद ने विश्व के देशों को ‘जनसँख्या-विस्फोट से भयभीत करने का एक अभियान चलाया। उनका मानना था की ग़रीब देशों, विशेष कर तीसरी-दुनिया के देशों की तेज़ी से बढती जनसँख्या एक दिन विश्व पर छा जाएगी और विश्व के अमीर देशों में रहने वालों के जीवन-स्तर को बुरी तरह प्रभावित करेगी। 1966 में अमरीका के राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने इस परिकल्पना को अपनी विदेश नीति का हिस्सा बना लिया और इसी के अन्तर्गत ग़रीब देशों को सहायता के लिए जनसँख्या नियंत्रण की शर्त लगाना आरंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों के उपरान्त अंततः ‘संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष’ का निर्माण हुआ, जिसने दक्षिण कोरिया, चीन और भारत में सक्रिय रूप से लाखों जनसंख्या नियंत्रण अभियान चलाए - जिसमें जबरन नसबंदी और समाज के गरीब वर्गों द्वारा गर्भ निरोधकों का अनिवार्य उपयोग भी शामिल था।

जनसँख्या और ग़रीबी 
एक आम धारणा है कि बढ़ती हुई जनसँख्या एक ऐसा दुष्चक्र है जो ग़रीबी को बढ़ाता है और फ़िर यही ग़रीबी जनसँख्या में वृद्धि का कारण बनती है और यह देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसा माना जाता है कि यदि जनसँख्या को नियंत्रित कर लिया जाए तो देश में बहुमुखी विकास होगा, ग़रीबी में भी कमी आएगी और लोगों का जीवन-स्तर बेहतर होगा। 
परन्तु जून 2018 में जारी की गई विश्व असमानता रिपोर्ट(World Inequality Report) का अध्ययन इस दावे को पूरी तरह से नकार देता है। इस रिपोर्ट में विश्व में संसाधन और दौलत के वितरण पर जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं उनसे स्पष्ट हो जाता है कि ग़रीबी का मुख्य कारण जनसँख्या नहीं बल्कि संसाधनों का असमान वितरण है। आइए ज़रा इसे निम्नलिखित आंकड़ो से समझने का प्रयत्न करते हैं: 
- विश्व के 1% सबसे अमीर, दुनिया की दौलत का 50% कण्ट्रोल करते हैं।
- विश्व के 10% चोटी के अमीरों का विश्व की कुल दौलत के 85% पर क़ब्ज़ा है। बचे हुए 90% लोग मात्र 15% संसाधन से जीवन चलाते हैं।
- विश्व के 30% सबसे अमीर, विश्व की कुल दौलत के 97% पर कण्ट्रोल रखते हैं। अतार्थ विश्व की 70% जनसँख्या मात्र 3% संसाधन में जीवन व्यतीत करने पर मजबूर है।
- अमरीका दुनिया का सबसे अधिक असमान वितरण वाला देश है। 
- भारत की 73% दौलत पर मात्र 1% अमीरों का क़ब्ज़ा है। 
- भारत की 27.5% आबादी ग़रीब और 8.6% अत्यन्त ग़रीब की श्रेणी में आती है। 
यह आंकड़े चौकाने वाले हैं और इनका एक सरसरी सा अध्ययन यह स्पष्ट कर देता है कि समस्या कहीं और है और ऊँगली कहीं और उठाई जा रही है। यह आंकड़े स्पष्ट रूप से बता रहे हैं की ग़रीबी की समस्या का सरल सा समाधान है की संसाधन के वितरण में हो रही असमानता को समाप्त किया जाए। अथार्त दोष पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में है जो अमीर को अमीर और ग़रीब को अधिक ग़रीब बना रही है। विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ लगभग सारी संस्थाओं और समितिओं पर भी इन्हीं पूंजीवादियों का कण्ट्रोल है और यदि यह कहा जाए तो सत्य से बहुत दूर नहीं होगा की दौलत पर अपनी इस पकड़ को बनाए रखने के लिए ग़रीबों के ध्यान को जनसँख्या वृद्धि की ओर मोड़ दिया गया है। लगभग सभी देशों की सरकारों पर भी इन्ही पूंजीपतियों का कण्ट्रोल है, इसलिए वह भी इन्हीं की भाषा बोलती हैं। और निशाने पर होता है ग़रीब जो न कुछ समझने की स्थिति में होता है न कुछ कहने की।
सन 2009 में अमरीका से प्रकाशित पुस्तक “द स्पिरिट लेवेल: समानता बढ़ने से समाज में मज़बूती क्यों उत्पन्न होती है?” ने इस विषय को गंभीरता से लेते हुए यह बात उजागर करने का प्रयत्न किया कि विश्व की 90% समस्याओं का सबसे बड़ा कारण असमानता है, न की जनसँख्या। रिचर्ड विलकिंसन और केट पिक्केट ने अपनी इस पुस्तक में चौंका देने वाले निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। वह कहते हैं कि देश चाहे अमीर हो या ग़रीब, यदि वहां असमानता का वर्चस्व है, तो उस समाज में ग्यारह विभिन्न प्रकार की स्वास्थ और सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे: शारीरिक व मानसिक अस्वस्था, नशीली दवाओं का सेवन, शिक्षा में कमी, हिंसा व अपराध की अधिकता, सामाजिक अविश्वास व सामुदायिकता में गिरावट आदि। यह इसी पुस्तक का प्रभाव था कि 2010 में होने वाले चुनाव में इंगलैंड के 75 सांसदों ने ‘समानता संकल्प’ पर अपने हस्ताक्षर करते हुए यह घोषणा की कि वह ऐसी पोलिसी को प्रोत्साहित करेंगे जिनसे समाज में अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को कम किया जा सके।  
 
समाधान 
वर्तमान जीवन व्यवस्था की सब से बड़ी समस्या यह है कि वह हर चीज़ को मात्र आर्थिक दृष्टिकोर्ण से देखती है और उसी में हल तलाशने का प्रयत्न करती है हांलाकि इस क्षेत्र से बाहर अध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक व धार्मिक क्षेत्रों में समस्या का समाधान पहले से मौजूद होता है। जनसँख्या और उससे सम्बंधित समस्त समस्याओं का ऐसा ही एक हल इस्लाम भी प्रस्तुत करता है जो कि बिलकुल प्राकृतिक, स्वीकार्य, तर्कसं�

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