अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था

इन्सान से व्यक्ति और समाज के रूप में बहुत-सी अपेक्षाएं की जाती हैं। इनमें से कुछ ऐसी ज़रूरतें हैं जिनके बिना जीवित रहना असम्भव है। कुछ आवश्यकताएं ऐसी हैं जिनके बिना कष्ट उठाकर जीवित रहना सम्भव है। इसी तरह जीवन की कुछ ज़रूरतें सुविधा के लिए हैं जो जीवन को सुख देती हैं और उसे ख़ुशहाल बनाती हैं।

अल्लाह ने इन्सान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस जगत में फैले बहुत से प्राकृतिक साधन रखे हैं जिनको उसने इन्सान के लिए वशीभूत कर दिया है और उसे इनके उपयोग पर समर्थ कर दिया है।

जिस क़ौम के साधन उसकी ज़रूरतों से ज़्यादा होते हैं वह आर्थिक रूप से ख़ुशहाल होती हैं और जिस क़ौम की ज़रूरतें उसके साधन के मुक़ाबले ज़्यादा होती हैं वह आर्थिक संकट का सामना करती है। इस आर्थिक संकट का समाधान ज़रूरी है वरना आर्थिक पतन और गिरावट के नतीजे में वह दूसरे देशों से क़र्ज़ व आर्थिक सहायता लेने पर मजबूर होती है। यह सिलसिला उस समय तक चलता रहता है कि जब तक साफ़-सुथरी आर्थिक पेशक़दमी के द्वारा इस हालत को दूर न कर लिया जाए।

आज इस्लामी जगत अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा प्राकृतिक साधनों से मालामाल होने के बावजूद बहुत बड़े आर्थिक संकट से घिरा है। इसका कारण यह है कि वह अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में अपने साधनों से पूर्ण रूप से लाभ उठाने की योग्यता नहीं रखता। यह सख़्त आर्थिक पिछड़ापन अधिकतर मुस्लिम देशों के राजनैतिक पिछड़ेपन का नतीजा है।

प्रथम चरण : इस्लाम का आर्थिक दृष्टिकोण

व्यक्ति एवं समाज की आर्थिक गतिविधियों की विभिन्न दिशाओं और आर्थिक समस्याओं के समाधान के हवाले से इस्लाम का दृष्टिकोण वास्तव में इन्सान और इस जगत में उसके योगदान से सम्बन्धित उसके दृष्टिकोण ही का एक अंश है। इस्लाम का यह दृष्टिकोण आस्था, नैतिक मूल्य और क़ानूनी आदेश के रूप में मौजूद है, जो मानव-जीवन की व्यवस्था करते हैं। इनमें से अधिकतर सीधे आर्थिक गतिविधियों पर प्रभाव डालते हैं। अतः एक मुसलमान की यह आस्था कि उसकी जीविका अल्लाह के यहां निश्चित है। उसका जीविका की तलाश के संघर्ष में अल्लाह पर भरोसा, उसका हराम से बचते हुए ग़रीबी पर धैर्य रखना, उसका ईमान कि वह इस धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि है और उससे धरती का आबाद रखना अपेक्षित है। इसी तरह लोगों के बीच न्याय के महत्व को बढ़ाना, उनको बराबरी का मौक़ा देना, प्रशासन का यह उत्तरदायित्व कि वह मशविरा (शूरा) के द्वारा जनता की समस्याओं को सुलझाए, अत्याचार, रिश्वत, सूद और धोखा पर प्रतिबन्ध लगाया जाए। इन सबका उम्मत की आर्थिक समस्याओं के समाधान में योगदान है।

एक महत्वपूर्ण समस्या का स्पष्टीकरण यहां ज़रूरी है कि दुनिया से अरुचि और आख़िरत को प्राथमिकता, परिश्रम, पैदावार को बढ़ाना, पवित्र चीज़ों से लाभ उठाने के विरुद्ध नहीं, शर्त यह है कि फ़ुज़ूलख़र्ची से बचा जाए।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का इरशाद है

अच्छा माल वह है जो अच्छे आदमी के पास हो।(मुसनद अहमद : 17096)

आप (सल्ल॰) ने यह भी फ़रमाया है

“दुनिया से अरुचि और परहेज़गारी यह नहीं है कि हलाल को हराम ठहराया जाए या धन को नष्ट कर दिया जाए बल्कि दुनिया से परहेज़गारी यह है कि जो कुछ तुम्हारे पास है उस पर तुम्हारा विश्वास अल्लाह की अधीन चीज़ों पर तुम्हारे विश्वास से ज़्यादा न हो जाए।            

(इब्ने माजा : 4090)

अल-इज़्ज़-बिन-अब्दुस्सलाम फ़रमाते हैं—किसी भी चीज़ के हवाले से परहेज़गारी यह है कि दिल का झुकाव उसकी रुचि और उसके सम्बन्ध से हट जाए। इसके लिए उस चीज़ से हाथ का ख़ाली होना या उस चीज़ का पास न होना ज़रूरी नहीं है। रसूलों के सरदार और परहेज़गारों के इमाम हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का निधन इस हालत में हुआ कि आप (सल्ल॰) फ़िदक, मदीना के आसपास और मक्का के आधे हिस्से सहित ख़ैबर के विभिन्न इलाकों के मालिक थे। हज़रत सुलैमान (अलैहि॰) पूरी धरती के मालिक थे और उन दोनों हस्तियों का अपने अधीन वस्तुओं से सम्बन्ध उनके अल्लाह से सम्बन्ध में कोई रुकावट नहीं था।

अल्लाह ने तो मुसलमानों के लिए पवित्र चीज़ों की तलाश इस्लामी क़ानून के अनुसार ठहराया है और उनको हराम घोषित करने से मना किया है।

“हे लोगो जो ईमान लाए हो, जो स्वच्छ चीज़ें अल्लाह ने तुम्हारे लिए वैध की है उन्हें अवैध न कर लो और सीमा का उल्लंघन न करो, अल्लाह को ज़्यादती करने वाले प्रिय नहीं। जो कुछ वैध और स्वच्छ रोज़ी अल्लाह ने तुम्हें दी है उसे खाओ-पियो और उस अल्लाह की अवज्ञा से बचते रहो जिस पर तुम ईमान लाए हो।” (क़ुरआन, 5:87-88)

द्वितीय : आर्थिक गतिविधियों के विभिन्न स्तर

प्रथम—पैदावारी

इसके तीन साधन हैं

(1) भूमिअल्लाह का इरशाद है—

“वही है जिसने तुमको धरती से पैदा किया है और यहां तुमको बसाया है।

(क़ुरआन, 11:61)

आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया है—

“जिसके पास ज़मीन हो वह उसमें खेती करे या अपने भाई को खेती के लिए दे दे।                                        

(बुख़ारी : 12216)

आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया—

“अगर क़यामत आ रही हो और तुममें से किसी के पास खजूर का एक छोटा-सा पौधा हो और क़यामत के आने से पहले वह उसे ज़मीन में लगा सकता हो तो ज़रूर लगा दे।                

(मुसनद अहमद : 2512)

आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया—

जो किसी बंजर भूमि को खेती योग्य बनाए वह उसी की होगी। (अबू दाऊद : 3073)

(2) परिश्रमआप (सल्ल॰) ने फ़रमाया

“किसी ने अपने हाथ की कमाई से ज़्यादा अच्छा कोई खाना नहीं खाया। अल्लाह के नबी दाऊद (अलैहि॰) अपने हाथ से मेहनत करके खाते थे।(बुख़ारी : 1966)

“जब तुम से कोई किसी काम को अच्छे ढंग से करता है तो अल्लाह उसे पसन्द करता है। (तबरानी : 897)

(3) पूंजीपूंजी पैदावार का एक बुनियादी तत्व है। इसी लिए इस्लाम ने उसे जमा करने पर पाबन्दी लगाई है और वैध तरीकों से धन को उपयोग में लाने तथा उसे अल्लाह की राह में ख़र्च करने पर उभारा है।

“दुखदायिनी यातना का सुसमाचार दो उनको जो सोना और चांदी एकत्र करके रखते हैं और उन्हें अल्लाह के रास्ते में ख़र्च नहीं करते।” (क़ुरआन, 9:34)

किसी धन से ज़कात निकाल कर अदा कर दी जाए तो उस धन की गणना धन संचित करने में नहीं होगी लेकिन इसके बावजूद इस्लाम इस बात को प्राथमिकता देता है कि इस धन का चक्र क्रम चलता रहे और उसका उपयोग किया जाए।

आप (सल्ल॰) का इरशाद है

“अनाथों के धन को कारोबार में लगाओ ताकि वह ज़कात अदा करते-करते ख़त्म न हो जाए। (तबरानी : 4152)

जहां तक खेती की उपज के साधनों और उसके विभिन्न तरीकों का सम्बन्ध है तो उन्हें इन्सानी सोच, ज्ञान, आविष्कार एवं ज़माने के हालात पर छोड़ दिया गया है। इस सिलसिले में केवल एक शरई पाबन्दी लगाई गई है कि उपज लोगों के लिए लाभदायक, वैध और पवित्र तरीक़े ही से होना चाहिए। इन्सानों के शरीर या उनकी बुद्धि को नुक़्सान पहुंचाने वाली चीज़ों की उपज से पूर्ण रूप से बचा जाए। फ़क़ीहों के अनुसार हर वह कर्म निषेध है जिससे बिगाड़ फैलने का या किसी सुधार के प्रभावित होने की आशंका हो।

द्वितीय चरणहस्तांतरण

इन्सान अपनी आवश्यकता की हर चीज़ नहीं उगाता। वह आमतौर से अपनी ज़रूरत की कुछ चीज़ें ही उपजा पाता है। इसलिए यह सामान्य बात है कि वह दूसरों की अतिरिक्त पैदावार से अपनी अतिरिक्त पैदावार का हस्तांतरण करे। अगर ऐसा न हो तो लोग बर्बाद हो जाएं और हर आदमी तमाम काम स्वयं ही करने पर मजबूर हो जाए।

यह हस्तांतरण ही व्यापार है। अल्लाह ने इसे दीन के अनुसार बताया है

“हे लोगो जो ईमान लाए हो, आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामन्दी से।” (क़ुरआन, 4:29)

कारोबार वैध है यहां तक कि हज के मौक़ा पर भी इसकी अनुमति है। इससे हाजी के अज्र (पूण्य) में कोई कमी नहीं होती।

“ताकि वे लाभ देखें जो यहां उनके लिए रखे गए हैं और कुछ निश्चित दिनों में उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें।” (क़ुरआन, 22:28)

लोगों के बीच वस्तुओं और लाभ का हस्तांतरण बिना किसी साधन के नहीं हो सकता। प्राचीनकाल से ही लोग मुद्रा को हस्तांतरण का साधन मानते आए हैं। रसूल (सल्ल॰) के ज़माने में भी सोने और चांदी के सिक्के होते थे। इसके बाद लोग विभिन्न तरह की मुद्रा पर सहमत हो गए और फ़क़ीहों ने सोने, चांदी के सिक्के और पैसे और आधुनिक काल के काग़ज़ के नोटों के बीच अन्तर किया है।

हस्तांतरण प्रायः बाज़ार के द्वारा ही होता है। आर्थिक गतिविधियों में हस्तांतरण के महत्व के कारण आधुनिक युग की आर्थिक व्यवस्था को बाज़ार की अर्थव्यवस्था (Market Economy) कहा जाता है। इससे तात्पर्य लोगों के बीच हस्तांतरण और सामान्य प्रतियोगिता की आज़ादी पर आधारित अर्थव्यवस्था है।

इस्लाम की दृष्टि में बाज़ार की आज़ादी महत्वपूर्ण है। यहां प्रशासन का हस्तक्षेप केवल इस आज़ाद प्रतियोगिता को यक़ीनी और सुरक्षित बनाने के लिए है। इसी लिए इस्लाम ने जमाख़ोरी और सूद को हराम, और दोनों पक्षों के बीच पूर्ण सहमति को ज़रूरी कहा है।

लेन-देन होना चाहिए मगर आपस की रज़ामन्दी से। (क़ुरआन, 4:29)

इस्लाम में किसी को मजबूर करके उससे क्रय-विक्रय या किसी मजबूर से क्रय-विक्रय, इसी तरह धोखे पर आधारित क्रय-विक्रय मना है। क्योंकि इस तरह के मामलात में दोनों पक्षों के बीच पूर्ण सहमति नहीं पाई जाती और न इनमें दोनों पक्षों के अधिकार स्पष्ट होते हैं। वस्तुओं की कमी से होने वाली महंगाई के समय मूल्य निर्धारण को आप (सल्ल॰) ने मना फ़रमाया है।

“बेशक अल्लाह ही जीविका में कमी व बेशी करने वाला और रोज़ी देने वाला है। मैं अल्लाह का सामना इस हालत में करना चाहता हूं कि तुममें से कोई किसी ख़ून या माल के सिलसिले में मेरे विरुद्ध कोई शिकायत लेकर वहां हाज़िर न हो। (तिरमिज़ी : 1235)

तृतीय चरणविभाजन

इससे हमारा तात्पर्य उपज के निम्नलिखित तत्वों पर आमदनी का विभाजन है।

(1) प्रथमभूमि : यदि किसी भूमि का मालिक अपनी भूमि पर खेती करे तो उसकी उपज का अधिकारी भी वही होगा। इसलिए कि आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया है

 

 

 

जिसने किसी बंजर भूमि को खेती के क़ाबिल बनाया, वह उसी की है।

 

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