एक अल्लाह पर ईमान रखने वाला समुदाय

एक अल्लाह पर ईमान रखने वाला समुदाय

सबसे पहली बुनियाद जिस पर यह उम्मत आश्रित है और इसका अस्तित्व बहाल है, इस्लामी आस्था है।

इसी लिए इस उम्मत का संदेश है कि इस आस्था का संरक्षण किया जाए इसको उन्नति दी जाए, इसे मज़बूत किया जाए और इसकी रौशनी को सारे संसार में फैलाया जाए।

इस्लामी आस्था का गठन अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों और आख़िरत के दिन पर ईमान लाने से होता है।

“रसूल ने उस मार्गदर्शन को माना जो उसके प्रभु की ओर से उस पर उतरा है। और जो लोग इस रसूल को मानने वाले हैं, उन्होंने भी इस मार्गदर्शन को दिल से मान लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और उनका कहना यह है कि, “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते, हमने सुना और आज्ञाकारी हुए। मालिक हम तुझ से क्षमा के इच्छुक हैं ओर हमें तेरी ही ओर पलटना है।’’ (क़ुरआन, 2:285)

इस आस्था का उद्देश्य निर्माण है विनाश नहीं, एकता है विभाजन नहीं, क्योंकि इसकी बुनियाद अल्लाह के सन्देश और अल्लाह के तमाम पैग़म्बरों पर ईमान है।

‘‘हम अल्लाह के रसूलों को एक दूसरे से अलग नहीं करते।’’

(क़ुरआन, 2:285)

‘‘जिसने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और अन्तिम दिन का इन्कार किया, वह गुमराही में भटक कर बहुत दूर निकल गया।’’                                  

(क़ुरआन, 4:136)

अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) के तरीक़े (सुन्नत) ने इन पांच क़ुरआनी स्तंभों (अरकान) में, तक़दीर पर ईमान की बढ़ोत्तरी की है। यह अस्ल में अल्लाह पर ईमान में शामिल है। क्योंकि तक़दीर पर ईमान अल्लाह के इल्म, इरादा और उसकी क़ुदरत से सम्बन्धित है। इसलिए कि इस सृष्टि में जो कुछ होता है अल्लाह की इच्छा और प्रबन्ध ही से होता है। कुछ भी कभी व्यर्थ व निरर्थक नहीं होता।

‘‘हमने हर चीज़ एक नियतन के साथ पैदा की है।’’

(क़ुरआन, 54:49)

‘‘कोई मुसीबत ऐसी नहीं है जो धरती से या तुम्हारे अपने ऊपर उतरती हो और हमने उसको पैदा करने से पहले एक किताब (अर्थात् भाग्य पत्रिका) में लिख न रखा हो। ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान काम है। (यह सब वु$छ इसलिए है) ताकि जो कुछ भी हानि तुम्हें हो उस पर तुम मलीन न हो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें प्रदान करे उस पर फूल न जाओ।’’ (क़ुरआन, 57:23)

इस आस्था का एक शीर्षक है जिससे इसकी व्याख्या होती है और वह है इस बात की गवाही कि, ‘‘अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और यह कि मुहम्मद (सल्ल॰) अल्लाह के रसूल हैं।’’

यह आस्था ही सृष्टि, सृष्टि के पालनहार, प्रकृति, जीवन, जीवन के उपरान्त, सृष्टि एवं स्रष्टा, लोक-परलोक, प्रत्यक्ष लोक और परोक्ष लोक के हवाले से मुसलमानों के दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है।

संसार में जो इस सत्य से इन्कार करेगा परलोक में उसकी आंखों से परदा उठेगा और वह सच्चाई को इस तरह खुलेआम देखेगा जिस तरह दिन के समय सूर्य को देखा जाता है।

‘‘धरती और आकाशों में जो भी हैं सब उसकी सेवा में बन्दों के रूप में पेश होने वाले हैं। सबको वह अपने घेरे में लिए हुए है और उसने उनको गिन रखा है। सब पुनरुज्जीवन के दिन व्यक्तिगत रूप में उसके सामने उपस्थित होंगे।’’ (क़ुरआन, 19:93-95)

यही अस्ली अर्थ है ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह’’ का यानी उसके सिवा कोई इबादत के योग्य नहीं या यह कि अगर पूरी सृष्टि में कोई इस योग्य है कि उसके आगे झुका जाए और उसकी इबादत की जाए तो वह अल्लाह और सिर्फ़ अल्लाह ही है।

‘‘हम तेरी ही बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद मांगते हैं।’’

(क़ुरआन, 1:4)

एक अकेला वही है जिसके आदेश पर सिर झुक जाते हैं जिस के सम्मान में माथे सजदा करते हैं जिसकी प्रशंसा में जीभ गुणगान करती है और जिसके फ़ैसले को दिल-दिमाग़ ख़ुशी और इत्मीनान से क़बूल करते हैं।

एक अकेला वही है जिसकी ओर दिल मुहब्बत के साथ आकर्षित होते हैं। वह अपने गुणों में अछूता है। वही अकेला हर तरह के सौंदर्य का स्रोत है। अल्लाह ही तमाम अनुकम्पाओं (नेमतों) का प्रदान करने वाला और सारी सृष्टि पर उपकार करने वाला है।

‘‘तुमको जो सुख-सामग्री एवं नेमत प्राप्त है अल्लाह ही की ओर से है।’’

(क़ुरआन, 16:53)

उपकार हमेशा प्रिय होता है, नेमत हमेशा प्रिय होती है और जो उपकार करे वह हमेशा प्रेमपात्र होता है।

‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह’’ का सार है कि ईश्वर की सत्ता को छोड़कर किसी और की सत्ता को मानने से, उसके अलावा किसी और के आगे झुकने से उसके फ़ैसले के अलावा किसी और फ़ैसले को क़बूल करने से और उसके आदेश के अलावा हर आदेश को मानने से पूर्ण रूप से इन्कार कर देना। वफ़ादारी सिर्फ़ उसी की और मुहब्बत सिर्फ़ उसी से और उसी की राह में।

इस पवित्र कलिमा का उदाहरण एक पवित्र पेड़ का है जिसकी जड़ें धरती में गहरी होती हैं और उसकी शाखाएं आसमान में बुलन्द होती हैं और वो अपने रब के आदेश से हर समय अपना फल देता रहता है।

इसका सबसे पवित्र फल दूसरों के भय और ग़ूलामी से आज़ादी, घमण्ड और अहंकार से छुटकारा और तमाम इन्सानों के बीच समानता की वास्तविक अनुभूति है। अब इन्सानों में से कुछ लोग दूसरे इन्सानों के रब नहीं हैं बल्कि सबके सब आपस में भाई हैं जिनका पिता भी एक है और मां भी एक।

इसी लिए किताब वालों (ईश्वरीय ग्रंथ रखने वालों) के बादशाहों के नाम अल्लाह के अन्तिम रसूल (सल्ल॰) ने जो पत्र लिखवाए उनपर निम्नलिखित आयत लिखी होती थी—

‘‘कहो, ‘‘ऐ किताब वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को साझी न ठहराएं और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना प्रभु न बना ले।’’                  

(क़ुरआन, 3:64)

हमारा ईमान है कि इस्लाम में पापाइयत (ईसाइयत में धर्मगुरु की अवधारणा) कदापि नहीं है। इस्लाम में धर्म गुरुओं की ऐसी कोई श्रेणी नहीं पाई जाती है, जिसका दीन पर एकाधिकार हो। अल्लाह का द्वारा अल्लाह के बन्दों पर उनके द्वारा खुलता हो और असफलता के फ़ैसले या निजात की ख़बर उसी ओर से आती हों। इस्लाम में सब लोग दीन का ज्ञान रखने वाले हैं। यहां इन्सान को अपने और ख़ुदा के बीच किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं क्योंकि ख़ुदा इन्सान से स्वयं उसकी गरदन की रग से भी ज़्यादा क़रीब है। एक मुसलमान अपनी नमाज़ और अपने रब का फ़र्ज़ धरती के जिस कोने में चाहे अदा कर सकता है।

इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का कथन है, ‘‘मेरे लिए सारी धरती सजदा करने और पवित्रता हासिल करने का साधन बनाई गई है। मेरी उम्मत का व्यक्ति जहां पाए वहां नमाज़ पढ़ ले।’’ (बुख़ारी : 332)

इमाम नमाज़ में अगुआई करता है वो पुरोहित नहीं होता। शरीअत की शर्तों को पूरा करते हुए हर मुसलमान दूसरे मुसलमानों का इमाम बन सकता है।

एक मुसलमान बिना किसी माध्यम के अपना फ़र्ज़ अदा कर सकता है।

अल्लाह से तौबा व इस्तिग़फ़ार (क्षमा याचना) के लिए किसी पादरी या पुरोहित की ज़रूरत नहीं है जिसके सामने जाकर एक आदमी अपने गुनाहों को स्वीकार करे और अल्लाह के दरबार में उसे अपना माध्यम बनाए।

‘‘और ऐ नबी, मेरे बन्दे यदि तुमसे मुझे पूछें, तो उन्हें बता दो कि मैं उनसे निकट ही हूं।’’ पुकारने वाला जब मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार सुनता और उत्तर देता हूं।’’                             

(क़ुरआन, 2:186)

‘‘(ऐ नबी) कह दो कि हे मेरे बन्दो, जिन्होंने अपने जानों पर ज़्यादती की है, अल्लाह की दयालुता से निराश न हो जाओ, निश्चय ही अल्लाह सारे गुनाह क्षमा कर देता है, वह तो अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।’’ (क़ुरआन, 39:53)

इस्लाम की दृष्टि में उलमा नबियों के दीन के उत्तराधिकारी और उम्मत के नेता हैं, वे अपने-अपने क्षेत्र में निपुण हैं। उनसे दीन के मामले में उसी तरह परामर्श लिया जाएगा जिस तरह हर विद्वान से उसके ज्ञान के सिलसिले में परामर्श लिया जाता है।

‘‘उसकी महिमा बस किसी जानने वाले से पूछो।’’ (क़ुरआन, 25:59)

‘‘वस्तुस्थिति की ऐसी सही ख़बर तुम्हें एक ख़बर रखने वाले के सिवा कोई और नहीं दे सकता।’’ (क़ुरआन, 35:14)

‘‘अनुस्मरण वालों से पूछ लो यदि तुम स्वयं नहीं जानते।’’ (क़ुरआन, 16:43)

हर मुसलमान यह अधिकार रखता है कि वह दीन का ज्ञान हासिल करके आलिम बन जाए। यह अधिकार उत्तराधिकार के द्वारा या उपाधि पाने से या विशेष परिधान पहन कर नहीं हासिल किया जा सकता। इस पर न किसी का एकाधिकार है न किसी पर कोई पाबन्दी।

 

 

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