एकेश्वरवाद की इस्लामी धारणा

एकेश्वरवाद की इस्लामी धारणा एकेश्वरवाद की इस्लामी धारणा ईश्वर से संबंध सामान्यतः उसकी पूजा-उपासना तक सीमित माना जाता है। चूंकि ईश्वर अदृश्य (Invisible) होता है, निराकार होता है, इसलिए पूजा-उपासना में उस पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए उसके प्रतीक स्वरूप कुछ भौतिक प्रतिमाएं बना ली जाती हैं। फिर ये प्रतिमाएं ईश्वर का प्रतिनिधित्व करती मान ली जाती हैं। यहीं से अनेकेश्वरवाद का आरंभ हो जाता है। ‘प्रतीक' ही ‘अस्ल' हो जाते हैं और ईश्वर के ईश्वरत्व में शरीक-साझीदार बनकर स्वयं पूज्य-उपास्य बन जाते हैं। एकेश्वरवाद परिवर्तित व विकृत होकर 'नियमवत् अनेकेश्वरवाद' का रूप धारण कर लेता है। सत्य- पथ से, इस ज़रा-से फिसलने और विचलित होने के बाद, फिर क़दम ठहरते नहीं, और आदमी को न कहीं क़रार मिलता है न संतोष व संतुष्टि। अतः धर्मों और धर्मावलंबियों का इतिहास साक्षी है कि नबी, रसूल, ऋषि, मुनि, महापुरुष, पीर, औलिया सब पूज्य-उपास्य बना लिए जाते रहे हैं। फिर इन्सानी क़दम और अधिक फिसलते, विचलित व पथभ्रष्ट होते हैं और इन्सान सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रों, तारागण, अग्नि को, फिर प्रेतात्माओं, ज़िन्दा या मुर्दा इन्सानों, समाज सुधारकों, क्रांतिकारी विभूतियों, माता-पिता, गुरुओं आदि को और फिर इससे भी आगे-वृक्षों, पर्वतों, नदियों, पशुओं, यहां तक कि सांप की भी पूजा होने लगती है। फिर जन्मभूमि, राष्ट्र, धन-दौलत, पुरुष-शरीर-अंग तथा कारखानों में काम करने वाले औज़ार भी पूजे जाने लगते हैं। अनेकेश्वर पूजा व अनेश्वर पूजा कहीं ठहरती नहीं और नित नए-नए पूज्यों की वृद्धि होती रहती है। इस प्रकार एकेश्वरवाद का वह भव्य दर्पण जिसमें मनुष्य अपने और ईश्वर के बीच यथार्थ संबंध का प्रारूप स्वच्छ रूप में देख सकता और उसी के अनुकूल एक सत्यनिष्ठ, न्यायनिष्ठ, उत्तम, शांतिमय तथा ईशपरायण व्यक्तिगत, सामाजिक व सामूहिक जीवन व्यतीत कर सकता था, चकनाचूर होकर रह गया। ‘एक ईश्वर' के बजाए बहुसंख्य अनेकेश्वरों के आगे शीश नवाते-नवाते मनुष्य (जो ब्रह्माण्ड की तमाम सृष्टियों से श्रेष्ठ, महान, और उत्कृष्ट व अनुपम था) की गरिमा और उसका गौरव टूट-फूटकर, चकनाचूर होकर रह गया। इन्सान के अन्दर, समाज के अन्दर तथा सामूहिक व्यवस्था में ऐसी जो छोटी-बड़ी अनेक ख़राबियां पाई जाती हैं जिनके सुधार की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हो पाती, उनके प्रत्यक्ष कारण व कारक जो भी हों, सच यह है कि परोक्षतः उनकी जड़ में अनेकेश्वरवाद (या अनेश्वरवाद), मूल कारक के तौर पर काम करता रहता है। यहीं से मानवीय मूल्यों की महत्वहीनता, मानव-चरित्र का पतन तथा मानव-सम्मान के विघटन व बिखराव की उत्पत्ति होती है। मानवजाति पर छाई हुई इस त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सही विकल्प तलाश किया जाए। संजीदगी और सत्यनिष्ठा के साथ ग़ौर करने पर यह विकल्प ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद' के रूप में सामने आता है।    

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