एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा

एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा

एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा

 

आज संसार में इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा को पेश करता है और उसके विरुद्ध अनेकेश्वरवाद और शिर्क से होने वाले नुक़सान को स्पष्ट रूप से बतलाता है। ईश्वर को एक मानकर उसकी ज़ात, गुण, अधिकार और इख़्तियार में किसी को साझी ठहराना शिर्क है। यह शिर्क ईश्वर के इन्कार से बढ़कर इन्सान के लिए हानिकारक है। क़ुरआन एकेश्वरवाद की धरणा के साथ-साथ अमली ज़िन्दगी में उसके तक़ाज़ों के बारे में बताता है। क़ुरआन का कहना है कि जो इन्सान ईश्वर को एक मानता हो, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में इसके तक़ाज़ों को पूरा करे। इसके बिना ईश्वर को मानना या न मानना दोनों बराबर है।
ईश्वर अल्लाह को एक मानने का अर्थ और उसके अमली तक़ाज़ों को क़ुरआन ने प्रमाणों के आधर पर समझाया है।

1. वह ईश्वर इन्सान, सृष्टि और इस ब्रह्माण्ड को पैदा करनेवाला ही नहीं, बल्कि मालिक, रब और पालनहार और शासक भी है।

2. ईश्वर का कोई परिवार, बेटा, पत्नी नहीं है। वह सदैव से है और सदैव रहेगा।

3. उसके अच्छे गुणों में जैसे वह राज़िक़ (रोज़ी देनेवाला), आदिल (न्याय करनेवाला), अलीम (हर चीज़ का ज्ञान रखनेवाला) है, वह समी (सुननेवाला) और बसीर (देखनेवाला) है। यह सारे गुण उसके अस्तित्व के अलग-अलग रूप नहीं हैं, कि उनकी पूजा व इबादत की जाए, बल्कि ये सब उसी एक ही ईश्वर के गुण हैं।

4. वह अपनी सृष्टि, विशेष रूप से इन्सानों को मार्गदर्शन और क़ानून देनेवाला भी है। उसने हर एक के लिए कुछ सिद्धांत व नियम बनाए। इन्सान ईश्वर की अनुपम सृष्टि है, इसलिए उनकी हिदायत व रहनुमाई के लिए एक बेहतरीन सिस्टम बनाया, जिसे ईशदूतत्व कहते हैं। इस धरती पर पहले इन्सान आदम (अलैहि॰) अल्लाह के संदेशवाहक थे। आख़िरी संदेष्टा हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) हैं। संसार के अलग-अलग देशों, ज़मानों एवं विभिन्न भाषाओं में 1,24,000 संदेशवाहक आए हैं। ये संदेशवाहक ईश्वर की ओर से मार्गदर्शन, हिदायत और रहनुमाई लेकर आते और उसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते। इसी तरह ईश्वर को मानने का अर्थ यह हुआ कि उसके सारे संदेष्टाओं और अंतिम संदेष्टा हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को माना जाए।

5. ईश्वर को एक मानने का अर्थ यह भी है कि उसे निराकार व अजन्मा माना जाए। उसे किसी ने अपनी आंखों से देखा नहीं और न ही इस दुनिया में कोई उसे देख सकता है। दुनिया में उसका जो चित्र व रूप बनाया जाता है, वह सच्चाई व यथार्थ से परे है।

6. ईश्वर को एक मानने का एक अर्थ यह भी है कि उसके आदेशों व निर्देशों को जो अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा मानव के लिए भेजे गए उन्हें माना जाए और उनका पालन किया जाए। यह आदेश-निर्देश और जीवन के लिए मार्गदर्शन अब क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन में सुरक्षित है।

क़ुरआन से पहले के ग्रंथों, वेद व बाइबल इत्यादि में उस काल व समय के इन्सानों के लिए ईश्वर के आदेश आए थे। उन ग्रंथों का आदर करना होगा, परन्तु अब क़ुरआन ही मार्गदर्शन करेगा। अगर कोई वेदों व बाइबल को माने और क़ुरआन का इन्कार करे, तो वह न वेदों का माननेवाला है और न ही बाइबल का, क्योंकि वेदों व बाइबल को जिस आधार पर ईश्वरीय ग्रंथ माना जाता है, उसी आधर पर क़ुरआन को ईश्वरीय ग्रंथ मानना चाहिए, क्योंकि पिछले ग्रंथों में समय के साथ-साथ परिवर्तन होता रहा, इसलिए अब वे सुरक्षित नहीं हैं मात्र क़ुरआन ही सुरक्षित है।
क़ुरआन में एकेश्वरवाद के सिलसिले में प्रमाणों के आधर पर इन्सानों के चिंतन-मनन, मानने या न मानने की आज़ादी की बात विस्तारपूर्वक कही गयी है। क़ुरआन में है, ऐ मुहम्मद! आप लोगों से कह दीजिए, लोगो यह तुम्हारे रब की ओर से हक़ है, यदि उसको मानो या इन्कार कर दो। (इसकी ज़िम्मेदारी व नतीजा तुम्हारे ऊपर ही होगा) (क़ुरआन, 18:29)
एकेश्वरवाद को समझने के लिए शिर्क को जानना भी ज़रूरी है। एकेश्वरवाद की ज़िद (विलोम) शिर्क है। यह सबसे बड़ा महापाप है। क़ुरआन ने तो यहां तक कहा है कि अगर कोई शिर्क का गुनाह करे फिर तौबा करके उसे न छोड़े, तो अल्लाह उसके गुनाह को माफ़ नहीं करेगा। शिर्क के साथ कोई भी नेकी पारलौकिक जीवन में कोई काम नहीं आएगी।
क़ुरआन ने शिर्क को महापाप बताया है। धरती पर मानव का आरंभ एकेश्वरवाद से हुआ है। हज़रत आदम (अलैहि॰) एवं हव्वा (अलैहि॰) सारे मानवजाति के माता-पिता थे। वे और उनकी संतान एकेश्वरवाद पर क़ायम थे। उनकी मृत्यु के बाद उनकी संतान में शिर्क आया। विशेषतः अल्लाह के एक संदेष्टा हज़रत नूह (अलैहि॰)का काल हज़रत आदम (अलैहि॰) के बाद का है। इस काल में बड़े बुज़ुर्गों की याद के लिए उनके पांच बड़े बुत (मूर्ति) बनाकर रखे गए थे। बाद के लोगों ने उनको याद रखने से आगे बढ़कर उन बुतों की पूजा करनी शुरू कर दी। इस तरह मूर्तिपूजा का आरंभ हुआ। कुछ लोग जानकारी न होने के कारण से यह समझते हैं कि काबा एक मंदिर था और मक्केश्वर भगवान और अनेक भगवानों की मूर्तियां वहां थीं। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने वहां से सब मूर्तियों को निकालकर केवल एक ईश्वर की बात कही, जबकि इतिहास में ऐसी बात नहीं है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के ज़माने में ख़ाना-ए-काबा में बुत ज़रूर थे, लेकिन जब यह इबादतगाह हज़रत इबराहीम (अलैहि॰) ने हज़ारों वर्ष पहले मक्का में बनायी थी, तो वह केवल एक ईश्वर की इबादत व उपासना के लिए थी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) से केवल 350 वर्ष पहले अम्र बिन हई एक बड़े आदमी ने मक्का से शाम (सीरिया) की यात्रा पर वापस आते समय कुछ बुत लाकर ख़ाना-ए-काबा में रख दिए। वहीं से ख़ाना-ए-काबा में मूर्तिपूजा शुरू हुई।

एकेश्वरवाद की वास्तविकता

यह एक सर्वमान्य सच्चाई है कि मनुष्य सृजनकार-ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सृष्टि के अन्य सभी जीवों, वस्तुओं, चीज़ों और प्राकृतिक संरचनाओं में केवल मनुष्य को ही कुछ विशिष्ट गुण, क्षमताएं और अधिकार मिले हुए हैं, जिनके अंतर्गत वह अपनी बुद्धि और अक़्ल का प्रयोग सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दिशाओं में करने के लिए स्वतंत्र है। वह अपने इच्छानुसार जीवन बरतता और जीता है। वास्तव में यह स्वतंत्रता और इरादे की शक्ति उसकी परीक्षा है, अन्यथा वह भी कई अन्य पहलुओं से सूर्य, चन्द्रमा आदि प्राकृतिक रचनाओं की भांति निश्चित नियम का पाबंद होता है। वह चाहता है तो ईश्वरीय आदेशों और निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करता है और इस प्रकार अपने लौकिक व पारलौकिक जीवन को सफल बनाता है। इसके विपरीत वह स्वच्छंद जीवन जीकर सर्वथा असफल परिणाम का भुक्त भोगी बनता है।
मनुष्य वह प्राणी है जिसको ईश्वर ने इतनी शक्ति व सामर्थ्य प्रदान की है कि वह एक सीमा के अंतर्गत सृष्टि के संसाधनों से लाभ उठा सकता है और उसका दोहन भी कर सकता है। इस दृष्टि से यह स्पष्ट है कि सृष्टि में जो मानव को स्थान प्रदान किया गया है, वह सोद्देश्य है और विशिष्ट उद्देश्य के अंतर्गत ही मनुष्य के लिए वे असीमित और असंख्य संसाधन जुटाए गए हैं।
स्वाभाविक रूप से एवं सुगमता के साथ यह तथ्य और मर्म समझा जा सकता है कि जिस स्रष्टा-पालनकर्ता प्रभु ने जिस मानव तथा उसके लिए विशाल सृष्टि को उत्पन्न किया है उसे उसका उपकृत होकर ही नहीं, बल्कि उसके प्रति निष्ठावान एवं आभारी होकर भी उसकी भक्ति व बन्दगी करनी चाहिए। इस प्रकार मनुष्य और उसके स्रष्टा के बीच एक विशिष्ट प्रकार का मधुर संबंध पाया जाता है। कुछ अनेकेश्वरवादी लोग इस संबंध का इन्कार और उसकी अवहेलना कर सकते हैं, लेकिन ईश्वर एवं उसकी सृष्टि के बीच मानव के इस कोमल नैसर्गिक संबंध में कदापि कोई परिवर्तन नहीं ला सकते। यह तथ्य स्वमेव सप्रमाण हर काल और समय में उपस्थित रहा है। फिर भी आश्चर्य और चिंता का विषय है कि अंधता के विश्वासियों की दृष्टि नहीं खुल पा रही है!
स्रष्टा और मनुष्य के बीच इस संबंध को अपेक्षित है कि मनुष्य अपने पालनकर्ता प्रभु का आज्ञाकारी बने और उसके आदेशों व इच्छाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करे। उस एक ईश्वर स्रष्टा, पालनकर्ता को छोड़कर किसी अन्य को पूज्य, उपास्य, नियंता, अधिपति न बनाए। वह विशुद्धभाव से एकेश्वरवादी बने और एक ईश्वर को ही अपना उपास्य और पूज्य माने। अपनी आवश्यकताओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं आदि के लिए उसी की ओर रुजू करे, उसी से विनीत भाव से प्रार्थना करे और उसकी ही प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करे। मनुष्य के पास एक ही हृदय है, जो एक ईश्वर की भक्ति की सामर्थ्य रखता है, फिर भक्ति को विखंडित तो किया ही नहीं जा सकता। अन्तरात्मा को भी यही वांछित है कि वह एक ही ईश्वर की भक्ति करे।
मनुष्य के अपने स्रष्टा के साथ इस प्रकार के मधुर संबंध की उक्त और अन्य अपेक्षाओं-वांछाओं को मानव जीवन में सही तौर पर उतारने, बरतने और उन्हें अमल में लाने के परिणामस्वरूप जीवन में जो गुण, विशिष्टताएं, शील-स्वभाव, नैतिकता और सदाचार पैदा होते हैं वे जीवन को विकारों और चिंताओं से मुक्त करते ही हैं, ईश्वर की प्रसन्नता का इतना उत्तम साधन बन जाते हैं कि मनुष्य का लोक-परलोक दोनों सुधर-संवर जाता है। यही सफलता मानव जीवन की वास्तविक सफलता है।
इसके विपरीत जो मनुष्य स्रष्टा के नैसर्गिक संबंध को झुठलाता है, उससे मुंह फेरता है वह बड़ा कृतघ्न तो है ही अपने जीवन को अत्यंत जटिल और समस्याग्रस्त भी बना लेता है। अंततः उसके हाथ असफलता और निराशा ही लगती है। मानव इतिहास यह बताता है कि मनुष्य अपने विवेक का प्रयोग उद्दंडता, निरंकुशता और मनमाने व्यवहार के रूप में भी करता रहा है, वहीं दूसरी ओर करुणामय, पालनहार, स्रष्टा ने उसे बार-बार सन्मार्ग दिखाया और इस्लाम को परिपूर्ण रूप से ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा भेजा। ईश्वरीय शिक्षाओं को जब भी झुठलाया गया या उनमें परिवर्तन आ गया तो इसका समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और उसमें बिगाड़ आ गया। इन अवसरों पर सर्वशक्तिमान संप्रभु, ईश्वर मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए अपने दूत, संदेशवाहक, पैग़म्बर और रसूल भेजता रहा एवं आवश्यकता के अनुसार उन पर अपनी किताब उतारी। इस प्रकार करुणामय दयावान प्रभु ने उन शिक्षाओं को मनुष्य तक पहुंचाने का प्रबंध किया जिन्हें वे भुला बैठे थे। ईश्वर के दूत और पैग़म्बर संसार के प्रत्येक भू-भाग में भेजे गए, अतः भारत में भी वे ईश्वर का संदेश लेकर आए होंगे। सभी नबियों ने अपने आह्वान का आरंभ एकेश्वरवाद (तौहीद) से किया और इस पर इस प्रकार जमे रहे कि किसी भी हाल में इससे बाल बराबर भी हटने को तैयार न हुए। अल्लाह के अंतिम रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) से विरोधियों ने बार-बार चाहा कि आप इस विषय में थोड़ी-सी नरमी दिखाएं, लेकिन आपने ज़रा भी नरमी नहीं दिखाई, यहां तक कि आपको प्रलोभन दिया गया, रिश्वत में वह सब कुछ पेश किया जिसकी उन्हें सामर्थ्य थी, लेकिन इन सब उपायों के बावजूद भी वे पैग़म्बर को विचलित न कर सके।

इस्लाम : विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म

‘इस्लाम’ का शाब्दिक अर्थ है—आज्ञा मानना अर्थात् एक ईश्वर सर्वशक्तिमान की आज्ञा का पालन करना। आज्ञापालन करनेवाले को मुस्लिम कहते हैं। इस्लाम ‘सिल्म’ धतु अक्षर से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ अम्न और शांति है। ‘इस्लाम’ शब्द का अर्थ है ईश—आज्ञापालन द्वारा शांति की (अवश्यंभावी) प्राप्ति।
इस्लाम विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म है। अर्थात् उसकी यह धरणा है कि संपूर्ण जगत का एक ही ईश और ख़ुदा है और वही एक मात्र पूज्य और उपास्य है। इस्लामी शब्दावली में ईश, पूज्य प्रभु, पालनहार को अल्लाह कहा जाता है, परन्तु अल्लाह शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है। आगे बढ़ने से पहले इसे जान लेना उचित और समीचीन होगा। ‘‘अल्लाह’’ शब्द का अर्थ निरुपण मौलाना अबुल-कलाम आज़ाद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘तफ्सीर सूरह फ़ातिहा’’ में निम्नलिखित शब्दों में किया है—
‘‘सामी भाषाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि व्यंजनों और स्वरों का एक मुख्य समूह है, जो ‘‘पूजित’’ के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। इबरानी, सुरयानी, कलदानी, हमीरी, अरबी आदि समस्त भाषाओं में उसका यही शाब्दिक गुण पाया जाता है। यह ‘अलिफ़’, ‘लाम’ और ‘हे’ का धातु है। कलदानी और सुरयानी का ‘अलाहिया’, इबरानी का ‘उलूह’ और अरबी का ‘इलाह’ इसी से बना है। और निस्सन्देह यही ‘इलाह’ 
 है, जो ‘अलिफ़’ और ‘लाम’ अक्षरों के बढ़ा देने से ‘अल्लाह’ हो गया है, और इस प्रयोग ने ‘अल्लाह’ नाम को उस सत्ता के लिए विशिष्ट कर दिया है, जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता है। परन्तु यदि ‘अल्लाह’, ’इलाह’ से बना है तो ‘

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