फ़िरदौस

फ़िरदौस

 (भूतपूर्व ‘सोनिया जैन')जन्म 2 जून 1975,

दिल्ली मैं अपनी माँ और संबंधियों के साथ जैन मंदिर जाया करती थी जहाँ हम सब पाठ में शरीक होते, पूजा करते, परिक्रमा करते। हमारी परम्परा पूरी, जैनी थी; किसी दूसरी परम्परा की कुछ भी जानकारी न थी। फिर भी जैन मंदिरों में हमारे रिश्तेदार जब बिल्कुल नंगे साधुओं के चरण छूते तो मैं हमेशा उसे नफ़रत से देखती, मेरी निगाहें शर्म से ज़मीन में गड़ जातीं। लेकिन मैं चुप रहती। इसी तरह समय बीतता गया और मैं 19 साल की हो गई। मेरी माँ उन दिनों एक कंप्यूटर डिज़ाइनिंग एंड प्रॉसेसिंग कम्पनी में काम करती थीं जिसके मालिक एक मुस्लिम,......साहब थे (अब वह मेरे पति हैं)।

मेरे और कम्पनी के मालिक के बीच मांसाहार के विषय पर बातें होने लगीं। उनके तर्कों को मैं रुचिपूर्वक सुनती। उनका यह नित्य कर्म था कि हर शुक्रवार को ऑफ़िस बंद करके क़ुरआन का पाठ करते। मुझे जिज्ञासा हुई कि इतनी निष्ठा के साथ वह क्या पढ़ते हैं। जब मैंने साक्षात उनका क़ुरआन पाठ (तिलावत) सुना तो मेरे दिल की अन्दरूनी हालत वु$छ अजीब-सी हो गई। एक तरह की जागरूकता पैदा हो गई। उन्होंने मुझे (मौत के बाद, परलोक के परिणाम, नरक की) आग से सचेत किया। अचानक मैं बड़े जोश में आ गई और उन्होंने मुझे (इस्लाम का मूल-मंत्र) ‘कलिमा' पढ़ाया और मैं मुसलमान हो गई।

अगले चरणों में, मेरा काफ़ी घोर विरोध करते रहने के बाद मेरे भाई और माता जी ने भी अंततः इस्लाम ग्रहण कर लिया। मुझे इस्लाम की बहुत सारी बातें अच्छी लगीं। वादे की पाबन्दी, इन्सानी बराबरी, ख़ुश-अख़लाक़ी, सुकर्म आदि। जब में नमाज़ पढ़ती हूं तो आन्तरिक शान्ति महसूस होती है। मेरी मां ने कम्पनी के मालिक से (जिनकी पत्नी का दो वर्ष पूर्व कैंसर के रोग में देहांत हो गया था) मेरी शादी कर दी। उनके तीन बच्चे थे।... (हमें चाहिए कि) अपने चरित्र और अख़लाक़ से क़ुरआन का पूर्ण नमूना बनें ताकि लोगों पर इस्लाम की सच्चाई विदित हो जाए। मैंने क़ुरआन को समझ कर पढ़ा है।

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