हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) विश्व नेता

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) विश्व नेता

किसी व्यक्ति को विश्व-नेता कहने के लिए कुछ मानदंड निर्धारित होने चाहिएँ और फिर उस व्यकित का, उन मानदंडों पर आकलन कर के देखना चाहिए कि वह उन पर पूरा उतरता है या नहीं। 
● पहला मानदंड यह होना चाहिए कि उसने किसी विशेष जाति, वंश या वर्ग की भलाई के लिए नहीं, बल्कि सारे संसार के मनुष्यों की भलाई के लिए काम किया हो। एक देश-प्रेमी या राष्ट्रवादी नेता का आप इस रूप से जितना चाहें आदर कर लें कि उसने अपने लोगों की बड़ी सेवा की, किन्तु आप अगर उसके देशवासी या सजाति नहीं हैं तो वह किसी हालत में आपका नेता नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति का प्रेम, शुभ-चिंता और कार्य सब कुछ चीन या स्पेन तक सीमित हो, एक हिन्दुस्तानी को उससे क्या संबंध कि वह उसे अपना नेता माने, बल्कि यदि वह अपनी जाति को दूसरों से श्रेष्ठ ठहराता हो और दूसरों को गिराकर अपनी जाति को उठाना चाहता हो तो दूसरे लोग उसे घृणा करने पर बाध्य होंगे। समस्त जातियों के लोग किसी एक व्यक्ति को अपना नेता केवल उसी दशा में मान सकते हैं जबकि उसकी दृष्टि में सब जातियां और सब मनुष्य समान हों, वह सबका समान शुभ चिंतक हो और अपनी शुभ कामना में एक को दूसरे पर प्रधानता न दे।
● दूसरा मुख्य मानदंड यह है कि उसने ऐसे सिद्धांत पेश किए हों जो सारे संसार के मनुष्यों का पथ-प्रदर्शन करते हों और जिनमें मानव-जीवन की सारी समस्याओं का समाधान हो।
नेता का अर्थ है पथ-प्रदर्शक। नेता की आवश्यकता इसलिए है कि वह कल्याण और भलाई का रास्ता बताए। अतः संसार का नेता वही हो सकता है जो सारे संसार के मनुष्यों को ऐसा मार्ग बताए जिसमें सबका कल्याण हो।
● तीसरा मानदंड यह है कि उसका पथ-प्रदर्शन किसी विशेष काल के लिए न हो, बल्कि हर काल और हर स्थिति में समान रूप से लाभदायक और समान रूप से शुद्ध और समान रूप से अनुकरणीय हो। जिस नेता का पथ-प्रदर्शन एक काल में लाभकारी और दूसरे काल में निरर्थक हो उसको विश्व-नेता नहीं कहा जा सकता। विश्व का नेता सिर्प़$ वही है, कि जब तक संसार शेष है, उसका पथ-प्रदर्शन भी लाभदायक रहे।
● चौथा मुख्य मानदंड यह है कि उसने केवल सिद्धांत ही पेश करने पर बस न किया हो, बल्कि अपने पेश किए हुए सिद्धांतों को जीवन में कार्यान्वित करके दिखा दिया हो और उनके आधार पर एक जीता-जागता समाज निर्मित कर दिया हो। केवल सिद्धांत पेश करने वाला व्यक्ति अधिक-से-अधिक एक विचारक हो सकता है, नेता नहीं हो सकता। नेता होने के लिए आवश्यक है कि आदमी अपने सिद्धांतों को कार्यान्वित करके दिखा दे।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)—मानदण्डों की कसौटी पर
आइए, अब देखें कि उपरोक्त चारों मानदंडों पर वह व्यक्ति कहाँ तक पूरा उतरता है, जिसको हम ‘‘विश्व-नेता’’ कहते हैं! पहले मानदंड को पहले लीजिए। आप हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन का अध्ययन करें तो एक ही दृष्टि में महसूस कर लेंगे कि यह किसी राष्ट्रवादी या देश-प्रेमी का जीवन नहीं है, बल्कि एक मानव-प्रेमी और विश्वव्यापी दृष्टिकोण रखने वाले मनुष्य का जीवन है। उनकी दृष्टि में सारे मनुष्य समान थे, किसी परिवार, किसी वर्ग, किसी जाति, किसी वंश, किसी देश के विशेष लाभ से उन्हें कोई संबंध न था। अमीर और ग़रीब, ऊँचे और नीचे, काले और गोरे, अरब और ग़ैर-अरब, एशियाई और यूरोपीय, सीरियायी और आर्य सबको वे इस वास्तविक रूप में देखते थे कि सब एक ही मानव-जाति के अंग हैं। उनके मुख से जीवन भर कोई एक शब्द या एक वाक्य भी ऐसा नहीं निकला और न जीवन भर में कोई काम उन्होंने ऐसा किया जिससे यह सन्देह किया जा सकता हो कि उन्हें एक मानव-वर्ग के विरुद्ध दूसरे मानव-वर्ग के लाभ से विशेष संबंध है। यही कारण है कि उनके जीवन ही में हबशी, ईरानी, रूमी, मिस्री और इसराईली उसी प्रकार उनके कामों में सहायक रहे जिस प्रकार अरब और उनके बाद संसार के हर कोने में हर वंश और हर जाति के मनुष्यों ने उनको उसी प्रकार अपना नेता स्वीकार किया जिस प्रकार स्वयं उनकी जाति ने। यह उसी शुद्ध मनुष्यता ही का चमत्कार तो है कि आज आप एक भारतवासी के मुख से उस महान पुरुष की प्रशंसा सुन रहे हैं जिसका सदियों पहले अरब में जन्म हुआ था।
अब दूसरे और तीसरे मानदण्ड को एक साथ लीजिए। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने विशेष जातियों और विशेष देशों की सामयिक और स्थानीय समस्याओं पर ही विचार प्रकट करने में अपना समय नष्ट नहीं किया, बल्कि अपनी पूर्ण शक्ति संसार में मानवता की उस बड़ी गुत्थी सुलझाने में व्यय कर दी जिससे सारे मनुष्यों की कुल छोटी-छोटी समस्याएँ भी स्वयं सुलझ जाती हैं। वह बड़ी समस्या क्या है? वह केवल यह है कि सृष्टि का विधान जिस सिद्धांत पर क़ायम है, मानव-जीवन की व्यवस्था भी उसी के अनुसार हो। कयोंकि मनुष्य इस सृष्टि का एक अंश है और अंश की गति का सम्पूर्ण के विरुद्ध होना ही विनाश का कारण है। यदि आप इस बात को समझना चाहते हैं तो इसका आसान तरीक़ा यह है कि अपनी दृष्टि को तनिक प्रयत्न करके समय और स्थान के बंधनों से मुक्त कर लीजिए। भू-मंडल पर इस प्रकार दृष्टि डालिए कि आदि से आज तक और भविष्य से अन्त काल तक बसने वाले सारे मनुष्य एक ही समय में आपके सामने हों, फिर देखिए कि मनुष्य के जीवन में बिगाड़ के जितने रूप उत्पन्न हुए हैं या होने संभव हैं उन सबकी जड़ क्या है और क्या हो सकती है? इस प्रश्न पर आप जितना विचार करेंगे, जितनी छानबीन और अन्वेषण करेंगे, निष्कर्ष यही निकलेगा कि मनुष्य का ईश्वर से विद्रोह सारी बुराइयों की जड़ है; इसलिए कि ईश्वर का विद्रोही होकर मनुष्य दो स्थितियों में से कोई एक ही स्थिति ग्रहण करता है। या तो वह अपने को स्वतंत्र और अनुत्तरदाई समझकर मनमाने कार्य करने लगता है और यह चीज़ उसे अत्याचारी बना देती है; या फिर वह ईश्वर के अतिरिक्त दूसरों की आज्ञा के सामने सिर झुकाने लगता है और इससे संसार में उपद्रव के अगणित मार्ग उत्पन्न हो जाते हैं। अब यह सोचने की बात है कि ईश्वर से बेपरवाह होकर ये बुराइयाँ क्यों उत्पन्न होती हैं? इसका सीधा और साफ़ उत्तर यह है कि ऐसा करना वास्तविकता के विरुद्ध है, इसलिए उसका परिणाम बुरा निकलता है। यह सारी सृष्टि वास्तव में ईश्वर का साम्राज्य है। पृथ्वी, चन्द्र, वायु, जल, प्रकाश सब ईश्वर की मिलकियत हैं और मनुष्य इस साम्राज्य में पैदाइशी दास की हैसियत रखता है। यह पूरा साम्राज्य जिस व्यवस्था पर स्थापित है और जिस व्यवस्था पर चल रहा है यदि मनुष्य उसका एक भाग होते हुए भी उसके विरुद्ध रवैया अपनाए तो निःसन्देह उसका ऐसा रवैया विनाशकारी परिणाम को उत्पन्न करेगा। उसका यह समझना कि मेरे ऊपर कोई सर्वोच्च अधिकारी नहीं है, जिसके सामने मैं उत्तरदाई हूँ, वास्तविकता के विरुद्ध है; इसलिए जब वह स्वतंत्रा बनकर स्वेच्छाचारी रूप से काम करता है और अपने जीवन का नियम स्वयं आप बनाता है तो परिणाम बुरा निकलता है। इसी प्रकार उसका ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को अधिकार और प्रभुत्व का मालिक मानना और उससे भय या लालच रखना और उसके प्रभुत्व के आगे झुक जाना भी वास्तविकता के विरुद्ध है। वास्तव में इस पूरी सृष्टि में ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी यह हैसियत नहीं रखता। अतः इसका परिणाम भी बुरा ही निकलता है। ठीक परिणाम निकलने की सूरत इसके अतिरिक्त कोई और नहीं है कि पृथ्वी और आकाश में जो वास्तविक शासक है मनुष्य उसी के आगे सिर झुकाए। अपनी सत्ता और स्वतंत्राता को उसके हवाले कर दे और अपने आज्ञापालन और अपनी बन्दगी को उसके लिए शुद्ध कर दे। अपने जीवन का विधान स्वयं बनाने या दूसरों से ग्रहण करने के स्थान पर उससे ग्रहण करना वह बुनियादी सुधार की योजना है, जिसे हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने मानव-जीवन के लिए पेश की है। यह एशिया और यूरोप के बंधन से मुक्त है। पृथ्वी के ऊपर जहाँ-जहाँ मनुष्य आबाद हैं, यही एक सुधार-योजना उनके भ्रष्ट जीवन को शुद्ध कर सकती है और यह योजना भूत और भविष्य के बंधन से भी मुक्त है। डेढ़ हज़ार वर्ष पहले यह जितनी शुद्ध और लाभदायक थी उतनी ही आज भी है, और उतनी ही दस हज़ार, या लाखों वर्ष बाद भी रहेगी।
अब चौथा और अन्तिम मानदंड बाक़ी रह जाता है। यह ऐतिहासिक सत्य है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने केवल एक काल्पनिक योजना ही पेश नहीं की, बल्कि उस योजना पर एक जीवित और जागरूक समाज निर्मित करके दिखा दिया। उन्होंने 23 वर्ष के अल्पकाल में लाखों मनुष्यों को ईश्वर के शासन के आगे आज्ञाशीष झुकाने पर तैयार कर दिया, उनसे उनकी स्वेच्छाचारिता और स्वच्छन्दता भी छुड़ाई और ईश्वर के अतिरिक्त दूसरों की बन्दगी भी। फिर उनको एकत्रित करके शुद्ध ईश्वरीय आज्ञापालन पर एक नई आचार-व्यवस्था, एक नई सांस्कृतिक व्यवस्था, एक नई सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था बनाई और उन सारी व्यवस्थाओं को व्यवहार में लाकर सारे संसार को दिखा दिया कि वह जो सिद्धांत पेश कर रहे हैं उसके आधार पर वै$सा जीवन बनता है और दूसरे सिद्धांतों के जीवन के सम्मुख वह कितना उपयुक्त, कितना पवित्र और कितना शुद्ध है। यह वह कृतित्व और कारनामा है जिसके आधार पर हम हज़रत मुहम्मद (उन पर ईश्वर की दया और कृपा हो) को ‘‘विश्व-नेता’’ कहते हैं। उनका यह कार्य किसी विशेष जाति के लिए न था, समस्त मानव-जाति के लिए था। यह मानवता की संयुक्त धरोहर है जिस पर किसी का अधिकार किसी से कम और अधिक नहीं है। जो चाहे इससे लाभ उठाए। 
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) विश्व-उद्धारक
थोड़ी देर के लिए वास्तविक आँखें बन्द करके कल्पना की आँखें खोल लीजिए और एक हज़ार चार सौ वर्ष पीछे पलट कर संसार की स्थिति पर दृष्टि डालिए। यह वै$सा संसार था? मनुष्य-मनुष्य के बीच विचारों के आदान-प्रदान के साधन कितने कम थे। देशों और जातियों के बीच संबंध के साधन कितने सीमित थे। मनुष्य की जानकारी कितनी कम थी। उसके विचार कितने संकुचित थे। उस पर भ्रांति और पशुत्व का कितना प्रभाव था। अज्ञानता के अंधकार में ज्ञान का प्रकाश कितना मद्धिम था और इस अंधकार को धकेल-धकेल कर यह प्रकाश कितनी कठिनाइयों के साथ पै$ल रहा था।
● संसार में न तार था, न टेलीफ़ोन था, न रेडियो था, न रेल, न हवाई जहाज़, न प्रेस थे और न प्रकाशन-गृह थे। न स्कूल और कॉलेज थे, न पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं, न अधिकता से किताबें लिखी जाती थीं, न अधिकता से उनका प्रकाशन होता था। उस काल के एक विद्वान की जानकारी भी कुछ पहलुओं से आजकल के एक साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कम थी। उस काल की ऊँची सोसाइटी का मनुष्य भी आधुनिक  काल के एक मज़दूर की अपेक्षा कम सभ्य था। उस काल का एक उदार विचार-मनुष्य भी आजकल के अनुदार मनुष्य से भी अधिक अनुदार था। जो बातें आज सर्वसाधारण को ज्ञात हैं वे उस काल में वर्षों के परिश्रम ओर खोज और छानबीन के पश्चात् भी कठिनता से ज्ञात हो सकती थीं। जो जानकारी आज प्रकाश की तरह वातावरण में फैली हुई है और बच्चे को होश संभालते ही प्राप्त हो जाती है, उसके लिए उस काल में सैकड़ों मील की यात्रा की जाती थी और पूरी उम्र उसकी खोज में बीत जाती थी। जिन बातों को आज भी भ्रान्तिमूलक समझा जाता है वे उस काल की सच्चाइयाँ थीं। जिन कार्यों को आज असभ्य और बर्बरतापूर्ण कहा जाता है वे उस काल के सामान्य कार्य थे। जिन रीतियों से आज मनुष्य का हृदय घृणा करता है, वे उस काल के आचरण में न केवल उचित समझी जाती थीं बल्कि कोई व्यक्ति यह सोच भी न सकता था कि उनके विरुद्ध भी कोई प्रणाली हो सकती है। मनुष्य की, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं की पूजा-भावना इतनी बढ़ी हुई थी कि वह किसी वस्तु में तब तक कोई सच्चाई, कोई महानता और कोई पवित्रता स्वीकार ही नहीं कर सकता था जब तक वह प्रकृति से ऊपर न हो, स्वभाव के विरुद्ध न हो, असाधारण न हो; यहाँ तक कि मनुष्य अपने आपको इतना हीन समझता था कि किसी मनुष्य का ईश्वर तक पहुँचा हुआ होना और ईश्वर तक पहुँचे हुए किसी व्यक्ति का मनुष्य होना उसकी कल्पना की पहुँच से बहुत दूर था। उस अंधकारमय युग में धरती का एक कोना ऐसा था जहाँ अंधकार का प्रभुत्व और भी बढ़ा हुआ था। जो देश उस काल की सभ्यता की कसौटी के अनुसार सभ्य थे, उनके बीच अरब का देश सबसे अलग-थलग पड़ा हुआ था। उसके इर्द-गिर्द ईरान, मिस्र और रोम देशों में विद्या, कला और सभ्यता और संस्कृति का कुछ प्रकाश पाया जाता था, किन्तु रेत के बड़े-बड़े समुद्रों ने अरब को उनसे अलग कर रखा था। अरब सौदागर ऊँटों पर महीनों की राह चलकर उन देशों में व्यापार के लिए जाते थे और केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान अथवा विनिमय करके लौट आते थे, विद्या और संस्कृति का प्रकाश उनके साथ न आता था।
● उनके देश में न कोई पाठशाला थी और न पुस्तकालय। न लोगों में विद्या की चर्चा थी, न विद्या और कला से कोई अनुराग था। सारे देश में गिनती के कुछ व्यक्ति थे, जिन्हें कुछ लिखना-पढ़ना आता था। किन्तु वे भी इतना नहीं कि उस काल की विद्या, कला और शिल्प के ज्ञाता होते। उनके पास एक उच्च कोटि की भाषा अवश्य थी, जिसमें ऊँचे विचारों के व्यक्त करने की असाधारण शक्ति थी। उनमें उच्च कोटि की साहित्यिक अभिरुचि भी विद्यमान थी, किन्तु उनके साहित्य का जो थोड़ा हिस्सा हम तक पहुँचा है उसको देखने से ज्ञात होता है कि उनका ज्ञान कितना सीमित था। सभ्यता और संस्कृति में उनका दर्जा कितना नीचा था, उन पर भ्रमयुक्त भावनाओं का कितना प्रभुत्व था? उनके विचारों और स्वभावों में कितनी अज्ञानता और पाशविकता थी, उनकी नैतिक कल्पनाएँ कितनी भद्दी थीं।
● वहाँ कोई सुव्यवस्थित राज न था। कोई विधान और नियम न था। हर गोत्र अपने स्थान पर स्वाधीन था और केवल ‘‘जंगल के नियम’’ का पालन किया जाता था, जिसका जिस पर वश चलता उसे मार डालता और उसके धन पर अधिकार जमा लेता। यह बात एक अरब बद्दू की समझ से परे थी कि जो व्यक्ति उसके गोत्र का नहीं उसे वह क्यों न मार डाले और उसके धन पर �

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