इबादतें

इबादतें

अल्लाह ने ऐसे मनुष्य पैदा किए जो कि अपने स्रष्टा और सच्ची नेमतें देने वाले रब की बन्दगी कर सकें। अल्लाह ने इन्सानों को बड़ी-बड़ी नेमतें दी हैं। ज़िन्दगी की नेमत, बुद्धि की नेमत, बोलने की नेमत, इन्सानों के हित के लिए पूरे संसार को वशीभूत कर देने की नेमत, रसूलों को नियुक्त करने की नेमत और उनपर किताबें अवतरित करने की नेमत। वे तमाम नेमतें जिनके आधार पर संसार में जीवन है, अल्लाह ने ही प्रदान की हैं।

“तुमको जो सुख सामग्री एवं नेमत प्राप्त है अल्लाह ही की ओर से है।

(क़ुरआन, अन-नह्ल : 16:53)

यदि तुम अल्लाह की नेमतों की गणना करना चाहो तो नहीं कर सकते।

(क़ुरआन, अन-नह्ल : 16:18, इबराहीम : 14:34)

इसी कारण उस महामयी रब का जिसने पैदा किया और बिल्कुल ठीक और दुरुस्त बनाया। वही सर्वोच्च प्रभु इस बात का अधिकारी है कि उसके बन्दे केवल उसी की उपासना करें कि यही उनके जन्म का उद्देश्य है।

जिसने पैदा किया और साम्य एवं सन्तुलन स्थापित किया।

(क़ुरआन, अल-आला: 87:2)

“मैंने जिन्न और मनुष्य को इसके सिवा किसी काम के लिए पैदा नहीं किया है कि वे मेरी बन्दगी करें। (क़ुरआन, अज़-ज़ारियात : 51:56)

इबादत (उपासना) के कुछ उद्देश्य हैं

प्रथम : बन्दे और रब के बीच बन्दे और माबूद (उपास्य) के रिश्ते की पूर्ति।

द्वितीय : इन्सानों के बीच बल्कि सारी सृष्टि के बीच नर्मी व दयालुता के गुण का विकास और दृढ़ता।

तृतीय : इन्सान और उसकी इच्छाओं की पवित्रता।

इन सारे उद्देश्यों में कोई एक भी दूसरे से अलग नहीं है।

इबादतों में कुछ फ़र्ज़ (अनिवार्य) हैं, कुछ नफ़्ल (ऐच्छिक) हैं, कुछ खुले हैं और कुछ छुपे हैं। प्रकट फ़र्ज़ इबादतों में महत्वपूर्ण वे इबादतें (शआइर) हैं जो इस्लाम के बुनियादी अरकान और उसके दृढ़ स्तम्भ निर्धारित किए गए हैं अर्थात नमाज़, ज़कात, रोज़ा और बैतुल्लाह का हज। अगर कोई इनके फ़र्ज़ होने का इन्कार करे या इनकी महत्ता घटाए तो उसे इस्लामी समुदाय से बहिष्कृत समझा जाएगा।

इन इबादतों में कुछ शारीरिक हैं जैसे नमाज़ और रोज़ा। हालाँकि नमाज़ की बुनियाद क्रिया (करने) पर है और रोज़ा की बुनियाद परित्याग (न करने) पर।

कुछ इबादतें माली अर्थात् धन से सम्बन्धित हैंजैसे ज़कात।

कुछ इबादतें वे हैं जिनका सम्बन्ध शरीर से भी है और माल से भी जैसे—हज और उमरा। ये दोनों इबादतें एक साथ शरीर और माल दोनों से सम्बन्धित हैं।

कुछ इबादतें ऐसी हैं जो इन इबादतों से जुड़ी हुई हैं जैसे—नफ़्ल नमाज़ें, नफ़्ल सदक़े, नफ़्ल रोज़े और नफ़्ली हज।

कुछ स्वेच्छा से करने वाली (रज़ाकाराना) इबादतें भी हैं जैसे—क़ुरआन की तिलावत, अल्लाह की तस्बीह, तहमीद, तहलील, तकबीर, दुआ, इस्तग़फ़ार, ज़िक्र, हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) और आप (सल्ल॰) की औलाद पर दुरूद।

कुछ इबादतें आन्तरिक भी हैं जिनका दीन में महत्व और अल्लाह की दृष्टि में मान है, जैसे अल्लाह के लिए निश्छल संकल्प, उसकी ओर पलटना (तौबा करना), उससे लज्जा और भय, उस पर भरोसा, उसकी नेमतों पर शुक्र, उसकी ओर से आने वाली आज़माइश पर धैर्य, उसके फ़ैसलों को ख़ुशी से मान लेना, उससे और उसके सिलसिले में दूसरों से मुहब्बत करना, उसकी रहमत का उम्मीदवार होना, उसकी यातना से डरना और हर मामले में उसे याद रखना।

कुछ ऐसी इबादतें भी हैं जो शआइर नहीं हैं। ऐसी इबादतें बन्दों के बीच दयालुता और भाईचारे को बढ़ाने वाली और सारी सृष्टि जैसे—जानवर, पेड़-पौधे और धरती के साथ सद्व्यवहार वाली हैं। जैसे—माता-पिता का आज्ञापालन, रिश्तेदारों से प्रेम और उनकी सहायता, पड़ोसियों से अच्छा व्यवहार, कमज़ोरों से हमदर्दी, पीड़ितों की फ़रियाद सुनना, परेशानहाल लोगों की मुश्किल दूर करना, नेकी और भलाई के कामों में एक-दूसरे की मदद करना, भलाई का हुक्म देना, बुराई से रोकना, सत्य, धैर्य और सहानुभूति का एक-दूसरे को उपदेश, अनाथों का सम्मान, लाचार को खाना खिलाने पर लोगों को उभारना, अत्याचार और उपद्रव की रोक-थाम, बुराई को बल प्रयोग द्वारा या बातचीत द्वारा से मिटाना या उसे दिल में बुरा समझना, जो ईमान का कमतर दर्जा है, इसी तरह शक्ति से, धन से और बातचीत के माध्यम से जिहाद (संघर्ष) करना। इसके साथ-साथ हर वह भलाई जो एक मुस्लिम लोगों के लिए करे, एक मीठी मुस्कान, एक अच्छी बात या रास्ते से कोई कष्ट देने वाली चीज़ को हटा देना ही क्यों न हो।

ये सारी बातें इबादतों में शामिल हैं क्योंकि इबादतों में वे तमाम कथन एवं कर्म शामिल हैं जो अल्लाह को पसन्द हों और उसे राज़ी करने का ज़रिया हों चाहे वह शरीर के अंगों से किए जाने वाले कर्म हों या दिलों में उठने वाले विचार।

यहाँ तक कि एक इन्सान का अपने रोज़गार के लिए संघर्ष करना अल्लाह की समीपता हासिल करने का सबसे अच्छा साधन हैं। बस शर्त यह है कि उसकी नीयत दुरुस्त हो और वह अल्लाह की ओर से क़ायम की गई सीमाओं का उल्लंघन न करे और लोगों के अधिकारों का ध्यान रखे।

कुछ इबादतें वे हैं जो बन्दे और उसकी इच्छाओं के आपसी सम्बन्ध के वास्ता से बन्दे की पवित्रता को बढ़ाती है। एक व्यक्ति का अपनी कामेच्छा पूरी करना जो कि जाइज़ साधन और नेक नीयत के साथ हो, उसकी गणना अल्लाह की इबादत के तौर पर होगी, जैसा कि हदीस में आया है

“तुममें से किसी की कामेच्छा की पूर्ति में भी सदक़ा (भलाई) है। लोगों ने पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) हममें से एक आदमी अपनी कामेच्छा की पूर्ति करता है तो क्या उसको उस पर अज्र (पुरस्कार) भी मिलता है? आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया, ‘‘क्या अगर वह अपनी यह इच्छा किसी हराम ज़रिया से पूरी करेगा तो उसे गुनाह (पाप) न होगा? इसी तरह अगर वह उसे हलाल (वैध) ज़रिया से पूरा करेगा तो उसे उस पर अज्र मिलेगा।

इस तरह इबादतें विस्तार में इन्सान के पूरे जीवन और उसके खुले और छिपे कर्मों को अपनी सीमाओं में घेर लेती हैं। एक मुसलमान अपने दुरुस्त दृष्टिकोण और अपने सच्चे संकल्प के द्वारा अपनी तमाम आदतों और अपने जीवन की तमाम गतिविधियों को इबादत और अपने रब के सामीप्य हासिल करने में बदल सकता है।

सहीह हदीस में है

“कर्म व्यक्ति की नीयत (संकल्प) पर आधारित हैं और हर व्यक्ति को उसकी नीयत का फल मिलेगा।

 

इस तरह पूरी धरती एक मुसलमान के लिए इबादतगाह बन जाती है जिसमें वह अपनी तमाम गतिविधियों और संघर्ष के द्वारा अल्लाह की बन्दगी करता है। अपने रब को याद रखते हुए यदि एक किसान अपनी खेती में, एक कारोबारी अपने कारोबार में, एक सेवक अपनी नौकरी में और एक छात्र अपनी पढ़ाई में नेकी और भलाई का तरीक़ा इख़्तियार करे तो वो अल्लाह की इबादत का फ़र्ज़ अदा करता है। इस तरह हर इन्सान नेकी और भलाई का तरीक़ा अपनाकर वो इबादत करता है जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। इस अन्दाज़ से जीवन बुलन्द होता है, इन्सान को श्रेष्ठता हासिल होती है और क़ौमें सही अर्थ में उन्नति करती हैं शर्त यह है कि वो अपना हाथ अल्लाह के हाथ में दे दें। उस वक़्त शैतान उनके बीच से तिरस्कृत एवं अपमानित और परास्त होकर निकल खड़ा होता है।

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