इस्लाम और इन्सान

इस्लाम और इन्सान

इस्लाम की दृष्टि में इन्सान एक आदरणीय प्राणी है।

यह तो हमारी कृपा है कि आदम की सन्तान को श्रेष्ठता दी।

(क़ुरआन, 17:70)

इस धरती को बसाने के लिए उसे ख़लीफ़ा नियुक्त किया गया है।

“फिर तनिक उस समय की कल्पना करो जब तुम्हारे प्रभु ने फ़रिश्तों से कहा था कि मैं धरती पर एक ख़लीफ़ा (स्थानापन) बनाने वाला हूं।(क़ुरआन, 2:30)

इन्सान आदरणीय और धरती का ख़लीफ़ा है इसलिए अल्लाह ने उसे सारी सृष्टि का मुखिया बनाया है और सारी सृष्टि को उसकी सेवा के लिए उसके वश में कर दिया है।

“क्या तुम लोग नहीं देखते कि अल्लाह ने धरती और आकाशों की सारी चीज़ें तुम्हारे लिए वशीभूत कर रखी हैं। (क़ुरआन, 31:20)

उसने धरती और आकाशों की सारी ही चीज़ों को तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया।                                        

(क़ुरआन, 45:13)

अल्लाह ने इन्सान को ऐसे अनगिनत अधिकार दिए हैं जो उसकी प्रतिष्ठा के संरक्षण और उसके दायित्व की पूर्ति में उसके सहयोगी हैं। अल्लाह ने इन्सान को उन अधिकारों के संरक्षण के आदेश दिए हैं और उन्हें उनका मौलिक दायित्व बताया है। इन अधिकारों में सर्वप्रथम इन्सान की यह आज़ादी है कि वो जिस आस्था को चाहे अपना सकता है। इस्लाम को आस्था की आज़ादी इतनी प्रिय है कि उसने मुसलमानों को इसकी सुरक्षा के लिए युद्ध के आदेश दिए हैं।

इन काफ़िरों से युद्ध करो यहां तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे। (क़ुरआन, 8:39)

2. इस्लाम में इन्सान का एक अधिकार बुद्धि और विवेक पर विशेष ध्यान देना और इन्सान के चिन्तन और शोध की योग्यता को स्वतंत्र रखना है। इस्लाम ब्रह्माण्ड और स्वयं अपने अस्तित्व के चिन्तन-मनन पर आधारित विद्वतापूर्ण धारणा को साकार करने की कोशिश करता है।

“क्या इन लोगों ने आकाश और धरती की व्यवस्था एवं प्रबन्ध पर कभी विचार नहीं किया और किसी चीज़ को भी जो अल्लाह ने पैदा की है आंखें खोलकर नहीं देखा।                            

(क़ुरआन, 7:185)

और आकाश और धरती की संरचना में सोच-विचार करते हैं। (क़ुरआन, 3:191)

अतः जो व्यक्ति यह कहे कि सोच-विचार की योग्यता का उपयोग एक इस्लामी दायित्व है वह सीधी राह से भटका हुआ नहीं है। क़ुरआन का बयान है

“हे नबी इनसे कहो कि ‘‘मैं तुम्हें एक बात की नसीहत करता हूं। अल्लाह के लिए तुम अकेले-अकेले और दो-दो मिलकर अपना दिमाग़ लड़ाओ और सोचो।(क़ुरआन, 34:46)

क़ुरआन में अल्लाह ने दस से भी ज़्यादा बार फ़रमाया है

“क्या तुम सोच-विचार नहीं करते?’’ (क़ुरआन, 6:50)

इसी तरह अल्लाह ने बहुत-सी आयतों में चिन्तन-मनन के आदेश दिए हैं और इस पर उभारा है। उदाहरण के लिए

“इनसे कहो, ‘‘धरती और आकाशों में जो कुछ है उसे आंखें खोलकर देखो।

(क़ुरआन, 10:101)

तो क्या ये नहीं देखते?’’ (क़ुरआन, 88:17)

क्या इन्होंने कभी नहीं देखा?’’ (क़ुरआन, 6:50)

इस्लाम विवेकहीन अनुसरण और पुरखों की चेतनारहित राह या सामाजिक प्रभुत्व रखने वालों के आदेश पर चलने का विरोधी है।

“उनसे जब कहा जाता है कि अल्लाह ने जो आदेश उतारे हैं उन पर चलो तो उसके उत्तर में कहते हैं कि हम तो उसी रास्ते पर चलेंगे जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। अच्छा अगर उनके बाप-दादा ने बुद्धि से कुछ भी काम न लिया हो और सीधा मार्ग न पाए हों तो क्या फिर भी ये उन्हीं का अनुसरण किए चले जाएंगे?’’ (क़ुरआन, 2:170)

और वे कहेंगे, ‘हे हमारे प्रभु, हमने अपने सरदारों और अपने बड़ों की आज्ञा का पालन किया और उन्होंने हमें सन्मार्ग से मार्गविहीन कर दिया।(क़ुरआन, 33:67)

इसी तरह इस्लाम विश्वास के अवसर पर भ्रम या इच्छा या सत्य से भटकाने वाली भावनाओं के अनुसरण का विरोध करता है।

“हालांकि इस मामले का कोई ज्ञान उन्हें प्राप्त नहीं है, वे केवल अटकल के पीछे चल रहे हैं, और अटकल सत्य की जगह कुछ भी काम नहीं दे सकता।” (क़ुरआन, 53:28)

और मन की इच्छा का अनुपालन न कर कि वह तुझे अल्लाह के मार्ग से भटका देगी। (क़ुरआन, 38:26)

अल्लाह ने शिर्व$ करने वालों (अनेकेश्वरवादियों) की निन्दा इन शब्दों में की है।

“सत्य यह है कि लोग केवल अटकल के पीछे चल रहे हैं और मन की इच्छाओं के शिष्य बने हुए हैं। हालांकि उनके प्रभु की ओर से उनके पास पथ-प्रदर्शन आ चुका है।                        

(क़ुरआन, 53:23)

अल्लाह किसी दावे को उसके दुरुस्त साबित करने वाले सुबूत के बिना नहीं मानता।

“उनसे कहो, अपना प्रमाण प्रस्तुत करो, यदि तुम अपने दावे में सच्चे हो।

(क़ुरआन, 2:111)

कहो कि लाओ अपना प्रमाण यदि तुम सच्चे हो। (क़ुरआन, 27:63)

इस्लाम जिस तरह विवेक सम्बन्धी बातों में प्रमाण एवं तर्क को स्वीकार करता है उसी तरह वह जीवन में प्राप्त अनुभवों को स्वीकार करता है।

“क्या वह उनकी पैदाइश के वक़्त मौजूद थे?’’ (क़ुरआन, 43:19)

इस्लाम पिछली परम्पराओं में प्रमाण को स्वीकार करता है।

“इससे पहले आई हुई कोई किताब या ज्ञान का कोई अवशेष (इन धारणाओं के प्रमाण में) तुम्हारे पास हो तो वही ले आओ अगर तुम सच्चे हो।(क़ुरआन, 46:4)

इस्लाम दीन की बातों में वह्य (प्रकाशना) के प्रमाण को स्वीकार करता है जैसा कि क़ुरआन ने अल्लाह की हलाल ठहराई हुई पवित्र चीज़ों को हराम घोषित करने वालों को चुनौती देते हुए कहा—

ठीक-ठीक ज्ञान के साथ मुझे बताओ अगर तुम सच्चे हो।(क़ुरआन, 6:144)

इसी तरह क़ुरआन ने उन लोगों को भी चुनौती दी है जो कहते हैं कि उनका शिर्क (अनेकेश्वरवाद) अल्लाह की मर्ज़ी से है—

“उनसे कहो, ‘‘क्या तुम्हारे पास कोई ज्ञान है जिसे हमारे समक्ष प्रस्तुत कर सको? तुम तो केवल अटकल पर चल रहे हो और निरी अटकलबाज़ी करते हो।” (क़ुरआन, 6:148)

3. इस्लाम ज्ञान में विशेष मक़ाम हासिल करने, इसके आधुनिक शैलियों को अपनाने और हर कार्य क्षेत्र में इसके फ़ैसले को मानने की दावत देता है। इस्लाम चिन्तन-मनन करने को इबादत और उम्मत की आवश्यकताओं की सीमा में आने वाले ज्ञान की तलाश को दायित्व कहता है।

“ज्ञान की खोज हर मुसलमान का दायित्व है। (इब्ने माजा)

ज्ञान के रास्ते से भटक जाना एक बुराई और अपराध है। इस्लाम की धारणा यह है कि ज्ञान के दृष्टिकोणों, समानताओं, मानव समाज सम्बन्धी और युद्ध सम्बन्धी सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठता हासिल करना एक दीनी दायित्व है। इस्लाम स्पष्ट विवेक और शुद्ध अनुकरण के बीच अन्तर नहीं करता। इसलिए हमारे विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि क़ुरआन और सुन्नत की समझ का आधार बुद्धि है।

इसलिए कि विवेक के द्वारा ही अल्लाह का वजूद नबियों का वजूद और मुहम्मद (सल्ल॰) की विशेष नुबूवत का वजूद साबित है। हमारी संस्कृति में ज्ञान की सत्यता और इस्लाम की सच्चाई के बीच कोई विरोधाभास नहीं पाया जाता। अतः यहां संघर्ष की कोई संभावना नहीं। हमारे इतिहास में ज्ञान और दीन के बीच कोई टकराव नहीं पाया जाता जैसा कि दूसरे धर्मों में हुआ, क्योंकि दीन हमारे यहां ज्ञान है और ज्ञान हमारे यहां दीन है।

इस दृष्टिकोण का यक़ीनी निष्कर्ष यह है कि इस्लामी धरोहर पर गर्व किया जाए, उससे रहनुमाई हासिल की जाए? सन्मार्ग हासिल करने के लिए क़ुरआन व सुन्नत के प्रमाणित मूल-पाठ में जो सीमित है और मानव बुद्धि अपनी समझ से उसमें जो विस्तार लाती है, उसमें अन्तर किया जाए। अर्थात् सन्मार्ग क़ुरआन और सुन्नत की बुनियादों पर विवेक एवं बुद्धि के उपयोग से ही हासिल होगा।

इस्लाम पूरी दुनिया के ज्ञान और चिन्तन के निष्कर्ष को खुले दिल से स्वीकार करता है। वह बुद्धिमत्ता को चाहे उसका स्रोत कुछ भी हो ढूंढ़ता है और क़ौमों के प्राचीन एवं नवीन अनुभवों का उपयोग करता है शर्त यह है कि वह उसकी आस्था, उसकी शरीअत और उसकी नैतिकता के विरुद्ध न हो। वह किसी प्राचीन राय को बिना पक्षपात के और किसी नवीन सोच की ग़ुलामी से आज़ाद रहकर दूसरों की अच्छी चीज़ों को स्वीकार कर लेता है। न वह अतीत से कटता है, न वर्तमान से दूर होता है और न भविष्य से बेख़बर रहता है।

इस्लाम क़ौमों के अधिकार और उनकी आज़ादी की सुरक्षा के सम्बन्ध में मानवीय अनुभवों और उन तमाम विद्याओं का खुले दिल से स्वागत करता है जो दृष्टिकोण, उपलब्धियों और सुरक्षा के सम्बन्ध में अपना लाभदायक होना प्रमाणित कर चुके हैं। इस तरह इस्लाम बिना किसी पाबन्दी के उन्हें क़बूल करने के लिए तैयार हो जाता है क्योंकि हिकमत (विवेक) मोमिन की खोई हुई पूंजी है वह उसे जहां पाले वही उसका सब से बड़ा अधिकारी है।

मुसलमानों की ओर से मानव-दर्शनों, व्यवस्थाओं और अनुभवों का क़बूल किया जाना इस शर्त के साथ है कि वह क़ुरआन और सुन्नत के प्रमाणित मूल पाठ के विरुद्ध न हों और न ही शरीअत से टकराते हों। एक इस्लामी समाज दूसरी संस्कृतियों से हासिल किए हुए दर्शनों, व्यवस्थाओं और अनुभवों पर अपनी सभ्यता अपने आदर्शों और अपने क़ानूनों का ऐसा रंग चढ़ा देता है कि वह इस्लामी व्यवस्था का एक अंग बन जाते हैं। इसी तरह एक मुस्लिम समाज दूसरों से हासिल किए हुए ज्ञान एवं दृष्टिकोण में संशोधन एवं वृद्धि कर देता है और इसके नतीजे में उस ज्ञान एवं दृष्टिकोण का पहला प्रभुत्व ख़त्म हो जाता है और उसे इस्लामी प्रभुत्व हासिल हो जाता है।

 

4. इस्लाम की दृष्टि में इन्सान का एक अधिकार शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक अवस�

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