इस्लाम और नारी

इस्लाम और नारी

इस्लाम ने नारी को इन्सान के रूप में सम्मानित किया है। वह भी पुरुषों की ही तरह अल्लाह की शरीअत की पूर्ण रूप से पाबन्द है। उसे अधिकार भी दिए गए हैं और दायित्व भी। अल्लाह तआला फ़रमाता है

“प्रतिउत्तर में उनके प्रभु ने कहा, ‘‘मैं तुममें से किसी का कर्म अकारथ करने वाला नहीं हूं। चाहे पुरुष हो या स्त्री, तुम सब एक-दूसरे के सहजाति हो।” (क़ुरआन, 3:195)

इस आयत के आख़िरी वाक्य का आशय यह है कि पुरुष व नारी एक-दूसरे का अंश हैं और ये दोनों एक-दूसरे की पूर्ति करते हैं। इस्लाम इन्सानी सम्मान और सर्वसामान्य दायित्व के ताल्लुक़ से पुरुष व नारी के बीच बराबरी का नियम तय करता है। क्योंकि हदीस में है

“स्त्रियां पुरुषों की हमरूतबा (समकक्ष) हैं।” (मुसनद अहमद : 26195)

जहां तक परिवार और समाज में इन दोनों में से हर एक के दायित्व का सम्बन्ध है तो इस सिलसिले में इस्लाम दोनों के अधिकार और दायित्व के बीच सन्तुलन का नियम निर्धारित करता है और यही न्याय का सत्य है।

“स्त्रियों के लिए सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार हैं, जैसे पुरुषों के अधिकार उन पर हैं।” (क़ुरआन, 2:228)

इस्लाम हर रूप में नारी का संरक्षक है चाहे वह बेटी हो, पत्नी हो, मां हो या समाज की एक महिला। इस्लाम नारी के रूप में एक महिला, पत्नी और मां की विशेषता को ध्यान में रखते हुए इबादत, शिक्षा और रोज़गार में उन्हें सम्मिलित होने के व्यापक अवसर देता है। विशेष रूप में उस वक़्त जब उसे या उसके परिवार को या समाज को उसकी आवश्यकता हो। इसी तरह आवश्यकता पड़ने पर इस्लाम उसके लिए संरक्षण व सहयोग के विशेष प्रबन्ध करता है।

इस्लाम उस समय भी उसे संरक्षण व सहयोग देता है जब उसे पति की ओर से अत्याचार या पिता की ओर से उपेक्षा या बेटे की ओर से अवज्ञा एवं दुर्यव्यवहार का सामना हो, लेकिन शर्त यह है कि उसकी गतिविधियां घर, पति या बेटे के अधिकार की ओर से उसके दायित्व पर प्रभाव न डालें।

इस सच्चाई से मतभेद नहीं किया जा सकता कि परिवार की देखभाल ही नारी का प्रथम और बुनियादी दायित्व है और उस दायित्व को उसके सिवा कोई दूसरा भली-भांति पूरा नहीं कर सकता।

जहां तक अतिरिक्त समय और गतिविधियों का सम्बन्ध है, उनके अवसर यदि प्राप्त हों तो नारी इनका उपयोग अपने सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कर सकती है। इन दायित्वों का निर्धारण भी स्वयं नारी की मौजूदा हालत, समाज के हालात, उसकी आवश्यकताएं और उसमें होने वाले विभिन्न परिवर्तनों को सामने रखकर ही किया जाएगा। इस कार्य क्षेत्र में इमामते-कुबरा को छोड़कर समाज की दूसरी तमाम आर्थिक व राजनैतिक गतिविधियां, जिसमें चुनाव में वोट डालने व उम्मीदवार बनने के अधिकार, सब सम्मिलित हैं। इस्लाम तो भलाई की ओर बुलाने, अच्छाई को फैलाने, बुराई को रोकने और उपद्रव व बिगाड़ की रोक-थाम के लिए पुरुषों के साथ-साथ नारी को भी ज़िम्मेदारी देता है।

“ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्रियां, ये सब एक दूसरे के साथी हैं, भलाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं।” (क़ुरआन, 9:71)

नारी की मर्यादा और उसके व्यक्तित्व के सम्मान को ध्यान में रखते हुए इस्लाम इस बात का सख़्ती से विरोध करता है कि उसे यौन आकर्षण, खेल-तमाशा और तुच्छ आनन्द के लिए साधन बनाया जाए। अनजान पुरुषों से नारी का सामना होने की सूरत में इस्लाम उस पर लिबास, साज-सज्जा, चाल-ढाल, बातचीत और नज़र में लज्जा व शर्म, सावधानी, शिष्टता एवं मान-मर्यादा की पाबन्दी को अनिवार्य ठहराता है, ताकि नारी की पहचान उसकी गंभीरता से की जाए और कोई उसे कष्ट पहुंचाने की चेष्टा न कर सके।

ताकि वे पहचान ली जाएं और न सतायी जाएं। (क़ुरआन, 33:59)

तथा बुरी लत के पुरुष अपनी इच्छाओं से दूर रहें।

“दबी ज़बान से बात न किया करो कि हृदय के विकार में ग्रस्त कोई व्यक्ति लालच में पड़ जाए। (क़ुरआन, 33:32)

इसी तरह पुरुष एवं नारी दोनों से इस्लाम अपेक्षा करता है कि आपसी मुलाक़ात के समय इस शिष्टता का ख़याल रखें।

हे नबी, ईमान वाले पुरुषों से कहो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें......और हे नबी, ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें। (क़ुरआन, 24:30-31)

 

इस्लाम पुरुष एवं नारी को नुक़सान में नहीं डालना चाहता, न सामाजिक गतिविधियों में नारी की भागीदारी को गुनाह ठहराता है बल्कि उसने जिस तरह उसे सामाजिक गतिविधियों के अवसर दिए हैं, उसी तरह उसे धर्म के क़ानून (शरई आदाब) पर चलना भी सिखाया है और नारी के एवं समाज के संरक्षण के लिए कुछ क़ानून व नियम बनाए हैं जैसेनारी का परदा, एकांत में पुरुष व नारी के मिलने को हराम ठहराना, पुरुष व नारी के मेल-जोल के लिए शर्तें निश्चित करना तथा सामाजिक गतिविधियों में नारी की भागीदारी से सम्बन्धित आदेश दिए गए हैं। इनमें कुछ क़ानून संरक्षण और सावधानी के लिए निश्चित किए गए हैं और कुछ बिगाड़ के रास्तों को बन्द करने के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं लेकिन ये तमाम क़ानून सामाजिक गतिविधियों में नारी की भागीदारी को संगठित रूप देने के लिए बनाए गए हैं, उसे इन गतिविधियों से रोकने के लिए कदापि नहीं। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हमारा अरबी और इस्लामी साहित्य इन नारियों के जगमगाते कारनामों से भरा है जिनका समाज के तमाम ही विभागों में चाहे वह शिक्षा का मैदान हो या राजनीति का या साहित्य का, यहां तक कि जिहाद का भी, एक रहनुमा किरदार रहा है।

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