इस्लाम और परिवार

इस्लाम और परिवार

इस्लाम परिवार को समाज की बुनियाद घोषित करता है। उसकी दृष्टि में तमाम धर्मों में पारंपरिक प्राकृतिक और शरई विवाह बन्धन ही परिवार की बुनियाद और उसके साकार होने का अकेला तरीक़ा है। इस्लाम आज के युग में अपनाए गए अपारंपरिक रीतियों जैसे समलैंगिक परिवार या समलैंगिक विवाह को रद्द करता है।

इसी लिए इस्लाम विवाह पर ज़ोर देता है और इसके तरीक़े को आसान बनाता है। और शिक्षा और क़ानून के द्वारा इसके रास्ते की सामाजिक और आर्थिक रुकावटों को दूर करता है। इस्लाम शादी को मुश्किल बनाने वाली और उसमें देर करने वाली बेबुनियाद परंपराओं की निन्दा करता है जैसे बहुत ज़्यादा मह्र, उपहार, दावत और विवाह समारोह में दिखावा, फर्नीचर, लिबास और साज-सज्जा में फ़ुज़ूलख़र्ची और एक-दूसरे से मुक़ाबला, इस तरह के तमाम ख़र्च को अल्लाह और उसके रसूल नापसन्द करते हैं। इस्लाम वर-वधु दोनों के चयन में दीन और शिष्टाचार को महत्व देता है—

‘‘तुम दीनदार लड़की से निकाह करके कामयाबी हासिल करो। (बुख़ारी : 3700)

“जब तुम्हारे पास लोग रिश्ता लेकर आएं जिनके दीन और आचरण से तुम सन्तुष्ट हो तो ऐसा निकाह करा दो, अगर तुम ऐसा न करोगे तो धरती पर उपद्रव एवं बिगाड़ फैलेगा।                      

(इब्ने-माजा : 1957)

इस्लाम एक ओर हलाल तरीक़ों को आसान बनाता है तो दूसरी ओर हराम के द्वार बन्द करता है और इसकी प्रेरणा देने वाली चीज़ों पर भी पाबन्दी लगाता है जैसेबात या चित्र, कहानी एवं ड्रामा द्वारा लैंगिक स्वच्छंदता और निर्लज्जता को बढ़ावा देने वाले उपकरण जो विशेष रूप से हर घर में प्रवेश पाकर हर कान और आंख तक पहुंचने वाली मीडिया के रास्ते से जारी है।

इस्लाम पति-पत्नी के बीच पारिवारिक सम्बन्ध को सन्तुष्टि, प्रेम, सहानुभूति दोनों के अधिकार एवं दायित्व और परंपरा के अनुसार मिल-जुलकर साथ रहने के नियम पर बल देता है।

“उनके संग भले ढंग से रहो-सहो। अगर वे तुम्हें पसन्द न हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।”                                    

(क़ुरआन, 4:19)

“स्त्रियों के लिए सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार हैं जैसे पुरुषों के अधिकार उन पर हैं। अलबत्ता पुरुषों को उन पर एक दरजा प्राप्त है। और सब पर अल्लाह प्रभावकारी प्रभुत्व रखने वाला और तत्वदर्शी और ज्ञाता मौजूद है। (क़ुरआन, 2:228)

इस्लाम में तलाक़

इस्लाम विवाह के बन्धन को निरन्तर निभाने की बुनियाद पर क़ायम करता है किन्तु इतिहास के विभिन्न काल में इन्सानी हालात यह ज़ाहिर करते हैं कि कभी-कभी वैवाहिक जीवन असहनीय जहन्नम बन जाता है और आपसी मतभेद और झगड़ों के कारण या वैवाहिक जीवन को क़ायम रखने वाली परिस्थितियों के अभाव में अपने अस्तित्व का औचित्य खो देता है।

इस्लाम ने वैवाहिक जीवन में आने वाली इस समस्या के समाधान के लिए एक ऐसा अनुपम तरीक़ा इख़्तियार किया है जिसमें दाम्पत्य जीवन को क़ायम रखने के साथ-साथ नारी के स्वभाव का भी विशेष ख़याल रखा गया है। इसमें पुरुष के दायित्व और बच्चों के हित का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है।

इसका सारांश निम्नलिखित है

1. दाम्पत्य के बीच मतभेद चूंकि ज़ाहिर और स्वाभाविक है इसलिए इस्लाम ने दोनों को धैर्य, उदारता और शिष्ट आचरण के साथ आपस में मिल-जुलकर रहने के निर्देश दिए हैं।

“उनके संग भले ढंग से रहो-सहो। अगर वे तुम्हें पसन्द न हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।”                                    

(क़ुरआन, 4:19)

यदि आपसी मतभेद गंभीर हो जाएं तो उसके समाधान के लिए इस्लाम ने एक पारिवारिक पंचायत आयोजित करने के आदेश दिए हैं।

“और तुम लोगों को कहीं पति-पत्नी के सम्बन्ध बिगड़ जाने का भय हो तो एक फ़ैसला करने वाला पुरुष के नातेदारों में से और एक स्त्री के नातेदारों में से नियुक्त करो, वे दोनों सुधार करना चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच मेल का रास्ता निकाल देगा।” (क़ुरआन, 4:35)

2. अगर यह पारिवारिक पंचायत पति-पत्नी के बीच सुलह कराने में सफल न हो सके तो इस्लाम ने पति के लिए यह क़ानून तय किया है कि वह अपनी पत्नी को एक तलाक़ दे। यह तलाक़ रजई (लौटाने योग्य) कहलाती है। अर्थात् इस सूरत में पुरुष के लिए जाइज़ है कि इद्दत के बीच जो तीन मासिक धर्म की अवधि है, अपनी पत्नी को पुनः अपने निकाह में लौटा ले। यह तीन मासिक धर्म की अवधि स्त्री अपने पति के घर में व्यतीत करेगी मगर पति-पत्नी एक साथ नहीं रहेंगे। अगर एक साथ रहने लगें तो तलाक़ का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा। और दाम्पत्य जीवन फिर से बहाल हो जाएगा। इसके विपरीत यदि पति ने इद्दत की अवधि में अपनी तलाक़शुदा पत्नी को अपने निकाह में वापस नहीं लिया और इद्दत बीत गई तो यह तलाक़ बाइन होगी। इस सूरत में पति-पत्नी के लिए आवश्यक होगा कि एक-दूसरे से जुदा हो जाएं।

3. इस्लाम ने जिस तरह पति को तलाक़ देने का अधिकार दिया है उसी तरह पत्नी को भी ख़ुलअ लेने का अधिकार दिया है। इस्लाम ने स्त्री को यह अधिकार भी दिया है कि वह शिकायत के लिए और तलाक़ पाने के लिए अदालत में जा सकती है।

4. यदि पति-पत्नी इद्दत के बीच या इद्दत के बाद वैवाहिक जीवन में पुनः वापस आ जाएं और फिर दोबारा उनके बीच मतभेद हो जाए तो उन दोनों के लिए पिछला तरीक़ा ही इख़्तियार करना ज़रूरी है। इस सूरत में यदि पति अपनी पत्नी को दूसरी बार तलाक़ देगा तो यह तलाक़ रजई ही होगी और पहली तलाक़ की तरह इस सूरत में भी इद्दत के बीच या इद्दत के बाद निकाह के बन्धन को क़ायम रखने की सम्भावना बाक़ी रहेगी।

5. यदि पति-पत्नी दोबारा दाम्पत्य जीवन में लौट आएं और उनके बीच फिर मतभेद हो तो दोनों को पिछला तरीक़ा ही इख़्तियार करना ज़रूरी होगा अब यदि पति तीसरी बार अपनी पत्नी को तलाक़ दे तो यह तलाक़ आख़िरी होगी। इसके बाद दाम्पत्य जीवन में वापसी की कोई सम्भावना नहीं। इसे तलाक़ बाइन बयूनते कुबरा कहते हैं।

अर्थात इसके बाद दम्पत्ति के लिए जाइज़ नहीं कि फिर वैवाहिक जीवन में वापस आएं। अब पिछले दाम्पत्य जीवन में वापसी की केवल यह एक सूरत हो सकती है कि स्त्री किसी और पुरुष से निकाह करे और उस पति के साथ जीवन व्यतीत करे फिर यदि उसका वह पति इन्तिक़ाल कर जाए या उसे तलाक़ दे दे और वह निकाह ख़त्म हो जाए और वह स्त्री अपने पहले पति के निकाह में आ जाए। इस सूरत में उसका पहले पति को नए सिरे से तीन तलाक़ देने का अधिकार हासिल होगा।

अल्लाह फ़रमाता है

“तलाक़ दो बार है। फिर या तो सीधी तरह स्त्री को रोक लिया जाए या भले तरीक़े से उसको विदा कर दिया जाए। और विदा करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो। अलबत्ता यह अपवाद है कि पति-पत्नी को अल्लाह की निर्धारित सीमाओं पर क़ायम न रहने की आशंका हो। ऐसी दशा में यदि तुम्हें यह भय हो कि दोनों अल्लाह की सीमाओं पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के बीच यह मामला हो जाने में कोई दोष नहीं कि पत्नी अपने पति को कुछ प्रतिदान देकर जुदाई हासिल कर ले। ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएं हैं, इनका उल्लंघन न करो। और जो लोग अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करें, वही अत्याचारी हैं। फिर यदि (दो तलाक़ देने के पश्चात् पति ने पत्नी को तीसरी बार) तलाक़ दे दी तो वह स्त्री उसके लिए वैध न होगी, सिवाय इसके कि उसका विवाह किसी दूसरे व्यक्ति से हो और वह उसे तलाक़ दे दे। तब यदि पहला पति और यह स्त्री दोनों यह समझें कि ईश्वरीय सीमाओं पर क़ायम रहेंगे तो उनके लिए एक दूसरे की ओर पलटने में कोई दोष नहीं।(क़रआन, 2:229,230)

बहुविवाह

पिछली तमाम क़ौमों और धर्मों में बहुविवाह बिना किसी रुकावट के प्रचलित रहा है। इस्लाम आया तो उसने उस व्यक्ति को इसका अधिकार दिया जो इसका ज़रूरतमन्द हो, इसकी सामर्थ्य रखता हो और जिसे यह विश्वास हो कि वह अपनी ओर से न्याय कर सकेगा।

“जो स्त्रियां तुम्हें पसन्द आएं उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से विवाह कर लो। लेकिन अगर तुम्हें आशंका हो कि उनके साथ न्याय न कर सकोगे तो फिर एक पत्नी रखो।”                          

(क़ुरआन, 4:3)

इस युग में स्त्री-पुरुष के बीच मशीनी बराबरी की आवाज़ें बहुत ऊंची उठने लगी हैं। आज के युग में बहुत से सिविल क़ानून में बहुविवाह को दण्डनीय अपराध ठहराया गया है जबकि उसी क़ानून में विवाह के बन्धन से मुक्त स्त्री व पुरुष के अवैध सम्बन्धों को जाइज़ ठहराया गया है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि कभी-कभी ऐसे व्यक्तिगत हालात आ जाते हैं जिनके कारण एक पुरुष को एक से ज़्यादा विवाह का औचित्य प्राप्त होता है। बल्कि कुछ हालात में ऐसा करना पहली पत्नी के लिए मान व सम्मान का कारण बनता है। उदाहरणस्वरूप यदि किसी की पत्नी बांझ हो या उसे ऐसी कोई बीमारी हो जो यौन सम्बन्ध में रुकावट हो या पति उसे कदापि पसन्द न करता हो और हालात में सुधार और समझौता की तमाम कोशिशें नाकाम हो चुकी हों। अब इन जैसे हालात में यदि पति चाहे तो अपनी पत्नी को तलाक़ दे सकता है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन अगर वह इन तमाम हालात के बावजूद अपनी पत्नी को मान-सम्मान के साथ अपने पास रखता है और इसके साथ एक दूसरी स्त्री से भी विवाह कर लेता है तो यह सभ्य और बुद्धिमत्ता पर आधारित कर्म है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पहली पत्नी के लिए भी यह सबसे अच्छी सूरत है। इसी तरह दूसरी स्त्री भी अगर पहली पत्नी की मौजूदगी में उस पुरुष से विवाह को स्वीकार करती है तो वह बहुविवाह को क़बूल करने के लिए मजबूर नहीं है। इसका मतलब यह है कि इस तरह के हालात में बहुविवाह से एक साथ दोनों के हित जुड़े हैं।

कभी-कभी ऐसे सामाजिक हालात आते हैं कि पुरुषों की संख्या घट जाती है और स्त्रियों की संख्या अधिक हो जाती है। जैसा कि युद्धों के नतीजे में प्रायः ऐसा होता है कि स्त्रियों का अनुपात पुरुषों से बढ़ जाता है। ऐसे हालात में एक स्त्री के लिए पति की आवश्यकता और समाज को बिगाड़ से सुरक्षित रखने के लिए बहुविवाह एक नैतिक और मानवीय कर्तव्य है।

इस अवसर पर हम इस ओर भी ध्यान आकर्षित करते चलें कि इतिहास के सभी काल में और हर क़ौम में जनगणना से यह प्रकट होता है कि साधारण हालात में हमेशा स्त्रियों की संख्या पुरुषों से कुछ ज़्यादा होती है। अनुपात में यह बढ़त तीन प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होती। इसका मतलब यह है अल्लाह हर पुरुष के लिए एक नारी पैदा करता है। यही अस्ल है। इस सूरत में कुछ नारियां बिना विवाह के रह जाती हैं। अब इनके विवाह का इसके अलावा कोई उपाय नहीं कि कुछ पुरुष एक से ज़्यादा विवाह कर लें। ऐसी हालत में यदि बहुविवाह की अनुमति न हो तो क्या किया जाएगा और इस समस्या का क्या समाधान होगा?

जिस हस्ती ने स्त्री व पुरुष को पैदा किया है उसी ने बहुविवाह का क़ानून भी बनाया है और अल्लाह की ओर से जो क़ानून बनाया गया है वह इसी तरह की समस्याओं के समाधान के लिए बनाया गया है। अर्थात् एक ओर यह समस्या और दूसरी ओर यह क़ानून दोनों मिलकर एक-दूसरे की पूर्ति करते हैं। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है।

सावधान रहो! उसी की सृष्टि है और उसी का आदेश है। अत्यन्त बरकत वाला है अल्लाह, सारे संसार का मालिक और पालनहार।” (क़ुरआन, 7:54)

यदि मुसलमान कभी-कभी बहुविवाह के इस क़ानून का दुरुपयोग करते हैं और शर्तों और नियमों का उल्लंघन करते हुए इससे लाभ उठाते हैं तो ज़रूरत इस बात की है कि उन्हें इस बात का पाबन्द किया जाए न कि बहुविवाह के क़ानून को ही समाप्त कर दिया जाए। क्योंकि ऐसा करने से नारी और समाज दोनों को ही सख़्त क्षति पहुंचेगी।

माता-पिता और सन्तान

 

इस्लाम माता-पिता और सन्तान के आपसी सम्बन्ध को इस नियम के अनुसार संगठित करता है कि माता-पिता की ओर से आर्थिक, भावनात्मक 

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