ख़ुराफ़ात के पास से वे जब गुज़रते हैं तो……

ख़ुराफ़ात के पास से वे जब गुज़रते हैं...

ख़ुराफ़ात, बकवास, बेहूदगी चाहे ज़ुबान से हो, मन-मस्तिष्क में उभरे, अमल, चरित्र व किरदार से सामने आए, अपने आप में बुरी ही होती हैं। फिर चाहे 'स्वार्थ' इसे गले लगाए या इसके ज़रिए नुक़सान पहुंचाने की योजना बनाने में लग जाए। चाहे ताक़तवर इसका इस्तेमाल दूसरों को नीचा दिखाने या कोई इसकी मदद से किसी को ज़लील करने की कोशिश करे। इस समय की बड़ी समस्या यह है कि हर तरफ़ का चलन है। चाहें तो चारों ओर आंख उठा कर देख लें। देश के किसी भी कोने में जहां कुछ लोग जमा हों वहां से सिर्फ़ निकर जाईए शायद ही कभी ऐसा हो कि आपको कुछ बकवास, ख़ुराफ़ात और बेहूदगी सुनाई या दिखाई न दे। छोटे छोटे बच्चे इन बातों को देखकर प्रभावित हो रहे हैं। उनके मन-मस्तिष्क उनसे गंदे हो रहे है। वे उन्हें अपना रहे हैं, उन्हें अपने मुंह से निकाल रहे हैं। गलियों, चौराहों, घरों, दुकानों, स्कूलों, कॉलेजों और खेल के मैदानों में हर जगह यह चीज़ें आसानी से दिख जाती हैं। ख़ुराफ़ात और बेहूदगी का इतना ज़्यादा चलन समाज को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है। इस की वजह से नए-नए अपराध पनप रहे हैं। तमाम तरह की बुराइयां आम होती जा रही हैं।
इस स्थिति ने वैसे तो जिंदगी के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है, लेकिन ख़ास तौर से औरतों और उन में भी लड़कियों के लिए तो यह बहुत तकलीफ वाली स्थिति बन जाती है, जब उन्हें न चाहते हुए भी वह सब देखना और सुनना पड़ता है, जिस की वजह से उनकी आंखें शर्म से झुक जाती हैं। उनके साथ रास्ते में चलने वाले घर परिवार के लोग भी एक अजीब सी स्थिति से जूझ रहे होते हैं और कई बार तो अपनी बेटियों से आंखें मिलाना भी उनके लिए आसान नहीं होता है। लेकिन ऐसा लगता है कि समाज अब इन सब चीजों का आदी हो चुका है और उसे अब इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। यही वजह है कि ख़ुराफ़ात, बेहूदगी का दायरा बढ़ता जा रहा है। वह बेशर्मी की चरम सीमा पर पहुंचता नजर आ रहा है। पहले ख़ुराफ़ात से ताल्लुक़ रखने वाले लोग चाहते थे कि उन्हें कोई देख न ले, फिर गली-मोहल्ले और जान-पहचान वालों से छिपा जाने लगा और अब तो घर वालों में से भी बहुत से उन में शामिल या राज़दार होते हैं, नहीं तो कम से कम उनको सब कुछ पता ज़रूर होता है। यह स्थिति ख़ुराफ़ात के फैलाव और उसके कारण समाज को होने वाली तबाही को बताती है।
ख़ुराफ़ात के इतना ज़्यादा फैल जाने की एक बड़ी वजह यह है कि इसका इस्तेमाल एक उद्योग के रूप में किया जाने लगा है। इसी वजह से दुनिया के कारोबार का एक बड़ा हिस्सा इसी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में कारोबारी जगत ने हलाल-हराम तो छोड़ो, अच्छे और बुरे के बीच का फर्क़ भी खो दिया है। ख़ुराफ़ात के लिए उत्साही लोगों को कारोबारी लोगों की पूरी तरह से मदद भी मिल रही है। उन्हें इस बात के लिए उकसाया जाता है कि जब भी ख़ुराफ़ात के खिलाफ आवाज़ उठाई जाए, कहीं से कोई उसकी बात करे, किसी बुराई और गलत व्यवहार को बुरा कहे, तो उसकी आलोचना की जाए। जो लोग बुराइयों की जड़ पर उंगली उठाते हैं और सच बोलने की कोशिश करते हैं, उनके खिलाफ सख़्त आवाज़ उठाई जाती है, उनके खिलाफ बदतमीज़ी का ज़बरदस्त तूफान खड़ा हो जाता है। इसके एक नहीं कई उदाहरण समाज में मौजूद हैं। उनसे मजबूर होकर बहुत से सच बोलने वाले चुप हो गए हैं, अपनी बात को वापस ले लिया है और कई बार तो माफी मांगी है। यह एक ऐसा सच है जो किसी से छिपा नहीं है।
यह स्थिति एक शरीफ़, इज़्ज़तदार, ग़ैरतमंद और मोहज़्ज़ब आदमी के लिए बहुत ही तकलीफ़देह होती है। वह इसे अच्छा नहीं समझता है और ना ही इसे स्वीकार करता है। लेकिन उसके ख़िलाफ बोलने के बजाय उसके अपने ही उसे चुप रहने की सलाह देते हैं और ऐसा न करने पर बुरा-भला कहते हैं। उस वक़्त शरीफ़ आदमी के सामने यह सवाल ज़रूर उठता है कि वह समाज के इस चलन पर क्या करे, उसे नापसंद करते हुए  उस पर चुप रहे या अपनी नापसंदीदगी ज़ाहिर करे। इस समय हमारे समाज में यह कशमकश पाई जा रही है और इसे हर जगह देखा और महसूस किया जा सकता है। इंसानों को पैदा करने वाले और पूरे संसार को बनाने वाले अल्लाह ने ख़ुराफ़ात के संबंध में क्या रवैया अपनाना है इस के बारे में पूरी रहनुमाई की है। सबसे पहले यह ज़रूरी है कि एक समझदार आदमी इन बुराइयों से अपने आप को बचाए। अल्लाह ने ऐसा करने वालों से अपने प्यार का इज़हार किया है और उन्हें रहमान (सबसे दयालु) के बंदे बताते हुए कहा है कि "जब किसी बेहूदा बात के पास से उनका गुजरना होता है, तो शराफ़त से, अपनी इज़्ज़त संभालते हुए गुज़र जाते हैं" (फुरकान: 72)।
नेक और समझदार आदमी की ख़ूबी यह है कि जब वह कहीं गलत-बुरे काम को होते हुए देखे और देखे कि लोग उसमें लगे हुए हैं तो वह अपनी इज़्ज़त संभालते हुए उनके पास से निकल जाए। अपने आप को इसमें शामिल न होने दे और ऐसी बैठकों और जगहों से दूर रहे। जो लोग ऐसा करते हैं, अल्लाह ने उन्हें कामयाब बताया है और कहा है कि वह ईमान वाले कामयाब हो गए "जो ख़ुराफ़ात से मुंह मोड़ लेते हैं" (अल-मोमिनून: 3)। एक दूसरी जगह भी अल्लाह ने उनकी यह ख़ूबी बताई है कि "और जब ख़ुराफ़ात वाली बात उनके कानों में पड़ती है, तो वे उस से दूरी बना लेते हैं" (अल-कस: 55)। अल्लाह के रसूल सल्ल. ने कहा, "आदमी के इस्लाम की ख़ूबी यह है कि वह ऐसी चीजों को छोड़ दे जो उस से संबंधित नहीं हैं" (तिर्मिज़ी: 2318)। उसका इनाम यह मिलता है कि उस को अल्लाह इस दुनिया में तो इज़्ज़त देता ही है, मरने के बाद आख़िरत में ऐसा ऊंचा मुक़ाम हासिल होता है जहां उसके कान ख़ुराफ़ात सुन्ने से बचे रहते हैं। "वहाँ वे कोई ख़ुराफ़ात या झूठी बात नहीं सुनेंगे" (अल-नबा: 35)। यही बात सूरह वाक़्या और ग़ाशियह में कही गई है।
आदमी ऐसा ना करे तो उसका क्या अंजाम होता है, इस्लाम ने इसे भी बता दिया है। अल्लाह के रसूल सल्ल. ने कहा कि "आदमी एक शब्द बोलता है जो अल्लाह को नाराज़ करता है, वह इसे कोई अहमियत नहीं देता है, लेकिन इसकी वजह से वह नरक में जाता है"(बुख़ारी: 6478)। एक दूसरी हदीस में अल्लाह के रसूल सल्ल. ने कहा कि "आदमी एक शब्द बोलता है और इसके बारे में नहीं सोचता है, जिसकी वजह से वह नरक के गड्ढे में दूर गिर जाता है"(बुख़ारी: 6477)। ईमान वालों की ज़िम्मेदारी ख़ुद को बचाने के साथ-साथ दूसरों को बचाने की भी है। घर, सगे संबंधियों से होते हुए सभी रिश्तेदार, आस-पड़ोस, मोहल्ले, गांव, शहर, इलाका, मुल्क और पूरी दुनिया उसकी ज़िम्मेदारी के तहत दी गई है। कहा गया है कि दुनिया तुम्हारे लिए बनाई गई है, लेकिन तुमको सभी लोगों को सुधारने की ज़िम्मेदारी दी गई है। ”तुम बेहतरीन उम्मत (समुदाय) हो जो लोगों के लिए पैदा की गई है कि तुम नेक बातों का हुक्म देते हो और बुरी बातों से रोकते हो”(आल-इमरान: 110)। इस लिए ईमान वालों का काम ख़ुद को ख़ुराफ़ात से बचाने के साथ-साथ दूसरों को भी बचाना है। इसलिए ध्यान इस बात पर भी देना है कि जो लोग ख़ुराफ़ात में लगे हुए हैं उन के बारे में भी सोचा जाए और उन्हें बचाने की तरफ़ ध्यान दिया जाए।



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