मुहम्मद बिलाल

मुहम्मद बिलाल

(भूतपूर्व ‘प्रमोद कुमार सिंह') 

मेरा संबंध ज़िला चम्पारन (बिहार) से है। मैंने 14, मार्च 2006 को इस्लाम क़बूल किया। मैं डच बैंक के सी॰सी॰ विभाग का हेड था। एक दिन एक व्यक्ति......ने मुझे फ़ोन किया, उसे मेरा नम्बर मेरे असिस्टेंट ने दिया था। आवाज़ बड़ी नर्म, मुलायम और आकर्षक थी। औपचारिक परिचय के बाद मुलाक़ात का वादा हो गया। भेंट हुई और मिलने का सिलसिला चल पड़ा। वह साहब कभी-कभी इस्लाम की बातें मुझे बताया करते थे, फिर मेरा उनके घर आना-जाना भी शुरू हो गया। उनके घर का वातावरण मुझे बहुत पसन्द आया।कुछ दिनों बाद ऐसी स्थिति आ गई कि मैंने उनसे कहा कि मैं इस्लाम धर्म स्वीकार करना चाहता हूं। उन्होंने मुझे समझाया कि अक़्ल का इस्तेमाल करें, पहले हिन्दू-मत का अध्ययन करें, फिर इस्लाम का। फिर अक़्ल जो फै़सला करे उसे स्वीकार करें। मैंने कहा कि अब मुझे किसी धर्म के अध्ययन की ज़रूरत नहीं है। फिर मैंने उन साहब के सामने (इस्लाम का मूल-मंत्र) ‘कलिमा' पढ़ लिया। वह दिन मेरे लिए एक यादगार दिन था जब मैं अंधकार से निकल कर उजाले में आ गया था। मैंने......साहब को अपना पिता समझ लिया है वही मेरे अभिभावक और प्रशिक्षक हैं।

1421 हिजरी के रमज़ान का भी मैंने अवलोकन किया। मैं तो इसको एक चमत्कार ही समझता हूं, क्योंकि मेरे ख़्याल में मुसलमानों की तरह रोज़े रखना मेरे लिए असंभव था। मैंने प्रयोग के रूप में रोज़े रखने शुरू किए कि जान सकूं कि क्या मैं इस्लाम के आदेशों का पालन कर सकूंग या नहीं? अल्लाह का शुक्र है कि पूरे 30 रोज़े रखने में मैं कामयाब नहीं।

अतः अल्लाह का शुक्र है कि 12 ज़ीक़ादा, 1421 हिजरी 6 फ़रवरी, 2001) को इस्लामिक एजुकेशन सेन्टर, ताइफ़ में मैंने शहादत का कलिमा पढ़ लिया। मैं अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं जिसने मेरे मार्गदर्शन किया और जिसकी मेहरबानी के कारण आज मैं मुसलमान हूं। इस्लाम क़बूल करने से पहले और बाद में मुझे बहुत-सी समस्याओं का सामना करना पड़ा, लेकिन अल्लाह ने हर तरह की आलोचनाओं और अन्य कठिनाइयों का मुक़ाबला करने की मेरे अन्दर हिम्मत पैदा कर दी और इस्लाम धर्म पर मुझे जमा दिया।

 

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