रहमान के बंदे किसी जान को नाहक़ क़त्ल नहीं करते

रहमान के बंदे किसी जान को नाहक़ क़त्ल...

बात-बे बात इंसान की जान लेना बहुत आसान माना जाने लगा है। नौ जात बच्चों या गर्भ में ही बच्चों को मार दिया जाता है। आपसी लड़ाई-झगड़े, रंजिश, लालच, लूटपाट, फ़ितना-फ़साद, नफ़रत और हिंसक मानसिकता की वजह से इंसानी जान चली जाती है। कभी भी, कहीं भी, किसी को भी मार दिया जाता है। इस तरह का चलन आम बात बनती जा रही है। इसे देखकर साफ़ समझ में आता है कि समाज विनाश के मुहाने पर खड़ा है। आक्रामक नफ़सियात ने लोगों को जकड़ लिया है। लोग छोटी-छोटी बात पर आपा खो बैठते हैं। नसें तन जाती हैं और बात इंसानी जानों को लेने तक पहुंच जाती है। किसी भी दिन का अख़बार उठा कर देख लें। क़त्ल के वाक़यात एक नहीं बहुत बड़ी तादाद में मिल जाएंगे। अगर सिर्फ़ एक दिन के सभी अख़बारों और सभी मीडिया स्रोतों को खंगाल डाला जाए और क़त्ल के वाक़यात को जमा किया जाए, तो जो तादाद सामने आए गी वह बहुत ज़्यादा होगी। और फिर हफ़्ता, महीना और साल के आंकड़े निकाले जाएं तो आंखें आश्चर्य से फटी की फटी रह जाएंगी। यह तस्वीर क्या बताती है?  इससे पता चलता है कि लोगों ने न केवल इंसानी जान की क़ीमत और अहमियत को खो दिया है, बल्कि उन्हों ने अपनी अंतरात्मा और इंसान होने की सोच को भी चोट पहुंचाई है।
सड़क पर हादसा होने पर इंसान की जान को 12-12 किमी तक जिंदा घसीटा जाता है। रोने, चिल्लाने, रहम व मदद के लिए गुहार मारने और कलेजे को चीर कर रख देने वाले दृश्यों से लोगों का न तो दिल काँपता है और न ही उनके शरीर में झुरझुरी आती है। हद तो यह है कि ऐसे लोगों को बचाने की कोशिश की जाती है। यदि मौका मिल जाए है और बस चल जाए, तो सड़क पर दुर्घटना की शिकार हुई इंसानी जान की आख़री कोशिश तक बेहुरमती करते हुए सबूत तक को मिटाने का प्रयास किया जाता है। बात सिर्फ़ सड़क दुर्घटना तक ही सीमित नहीं है। जहां भी क़त्ल होता है, सबूतों को मिटाने की कोशिश में हर संभव हद पार करना और हत्यारे के समर्थन में लोगों का खड़ा होना आदत, परंपरा या यह कहें कि नीति बनती जा रही है। बस इंसानी जान लेने वाले का ताक़त वाला होना या ताक़त वालों के साथ उस का संबंध होना ज़रूरी है। यह एक बहुत ही आम मानसिकता बनती जा रही है। इसे कहीं भी देखा और महसूस किया जा सकता है। समाज के किसी दूर के इलाके नहीं अपने आस-पड़ोस के आम लोगों की गतिविधियों को देखें। बात बहुत मामूली होती है और इस पर झगड़ा बहुत बड़ा होता है। तूतू मैंमैं के बीच हाथा पाई की जगह मामला फ़ौरन ख़ून ख़राबे तक पहुंच जाता है।
झगड़े के दौरान जिस के बस में जो होता है वह कर डालने के लिए उतावला हो जाता है। जिस के पास जो होता है लड़ाई झगड़े में उस का इस्तेमाल होना आम बात हो जाती है। उस समय पास में नहीं है तो बाद में देख लेने और मार डालने की धमकियां दी जाती हैं। कुछ नहीं तो कम से कम गीदड़ भभकी तो दे ही दी जाती है। यह समाज का वह चेहरा है जो हर जगह और हर समय दिखाई दे जाता है। ये चेहरा किसी से ढका छुपा नहीं है बल्कि सबके सामने है। इस पर ग़ौर करें कि समाज का यह चेहरा कैसे बन गया। इसके पीछे कई कारण और बातें काम कर रही हैं। ताक़त, पैसा और ओहदा  यह सब आम लोगों की तो बात ही छोड़िए, अच्छे अच्छों का दिमाग ख़राब कर देते हैं। सामने वाला ज़्यादा ताक़तवर हो तो ताक़त का नशा आमतौर पर क़ाबू में रहता है। बराबर का हो तो भी ज़्यादा ज़ोर नहीं मारता है, लेकिन कमज़ोर हो तो यह नशा दोगुना हो जाता है। इसे मज़बूत बनाने में किसी के सामने जवाबदेह न होने या इससे बच निकलने की मानसिकता अहम भूमिका निभाती है। इस समय का सामाजिक ढांचा और मौजूदा चलन कुछ ऐसा बनता जा रहा है जिस की वजह से लोगों में निडरता बढ़ती जा रही है।
निडरता की वजह से लोग यह समझ लेते हैं कि वे कुछ भी कर लें, किसी न किसी तरह पकड़ से बच निकलेंगे और कोई न कोई मदद के लिए पहुंच ही जाएगा। यह मानसिकता एक ही समय में ज़ुल्म और उकसावे को बढ़ावा देती है। ज़ुल्म और उकसावा दोनों के नतीजे में समाज फ़ितना और फ़साद से भर जाता है। आज का समाज उसी तस्वीर को पेश कर रहा है। धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो इस्लाम एक क़त्ल को भी सभी इंसानों का क़त्ल बताता है। इंसानों को पैदा करने वाले अल्लाह ने साफ़-साफ़ कहा है कि जिसने "किसी एक इंसान का क़त्ल किया तो, यह ऐसा है जैसे उसने सभी इंसानों को क़त्ल कर दिया" (अल-माइदा:32)। एक आदमी का दूसरे आदमी को क़त्ल कर देना, वास्तव में देश और समाज के क़ानून को ताक़ पर रख देना और क़ानून को अपने हाथ में ले लेना है। इस से बदले का सिलसिला चल पड़ता है और इसके नतीजे में समाज और ज़मीन में अराजकता फैल जाती है। लेकिन इसके उलट अगर कोई किसी इंसान की जान को बचाने की कोशिश करता है तो उसकी जो तस्वीर बनती है, उसे अल्लाह ने इस तरह बयान किया है कि "जिसने किसी एक जान को (क़त्ल से बचाकर) ज़िंदा रखा तो, यह ऐसा है जैसे उसने सभी इंसानों को ज़िंदा रखा" (अल-माइदा:32)। यह इंसानी जान को बचाने की सोच और अमल का फल है।
ज़ाहिर तौर पर लोग एक आदमी को बचते-बचाते देखते हैं लेकिन असल में एक आदमी की जान बचाने का इंसान का यह अमल लोगों को क़ानून को अपने हाथ में लेने से रोकता है। ज़ुल्म करने और ताक़त के बिला वजह के प्रदर्शन से रोकता है। इस की वजह से लोगों में बदले की भावना नहीं पैदा हो पाती है जो तबाही लाती है। अल्लाह ने इंसान की जान लेने से मना किया है। जो ईमान वाले अल्लाह की इस बात को मानते हैं, उन्हें ख़ुद अल्लाह ने रहमान (परम दयालु) के बंदे कहा है। अल्लाह ने उनकी यह ख़ूबी बताई है कि वे "किसी जान को नाहक़ (अन्याय से) नहीं मारते"(अल-फुरक़ान:68)। 'नाहक़' कह कर प्रकृति के इस नियम को भी बता दिया है जिसका पालन सभी देश और समुदाय करते हैं। जब किसी की जान को ख़तरा हो, जब इज़्ज़त-आबरु, मान-सम्मान को ख़तरा हो, जब माल-दौलत, संपत्ति को बचाना बहुत ज़्यादा मुश्किल हो जाए, तो पूरी दुनिया में हर देश व समुदाय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून सुरक्षा का अधिकार देते हैं। सुरक्षा, आत्मरक्षा की कोशिश में अगर किसी से कुछ हो जाए, तो इसे किसी भी क़ानून में इरादतन क़त्ल का अपराध नहीं माना जाता है।
रक्षा, आत्मरक्षा में किसी गलती की नौबत ही ना आए इसके लिए इंसानों को इनके पैदा करने वाले अल्लाह ने ज़ुल्म से दूर रहने की हिदायत दी है, इस की ताकीद की है। उन्हें यह दुआ भी सिखाई गई है कि "ऐ हमारे रब, तू हमें ज़ालिमों के साथ ना कर"(अल-आराफ़:47)। इतना ही नहीं, ईमान वालों को निर्देश दिया गया है कि उनके लिए बुराई से बचना और अपने आप को क़त्ल व मार धाड़ से दूर रखना ही काफी नहीं है, बल्कि उन के लिए "सुधार करते रहना और फसाद पैदा करने वाले लोगों के तरीके पर न चलना"(अल-आरफ:142) भी ज़रूरी है। यह आदेश दिया गया है कि "दो समूह आपस में लड़ जाएं, तो उनके बीच सुधार कराओ"(अल-हुजरात:9)। इसी आयत में यह भी कह दिया गया कि अगर इसके लिए ताक़त का प्रयोग करना पड़े तो उससे पीछे न हटा जाए बल्कि हर हाल में सुधार कराने की कोशिश की जाए। अल्लाह के रसूल सल्ल. ने कहा कि "अपने भाई की मदद करो, चाहे वह अत्याचारी हो या उस पर अत्याचार किया गया हो। "सहाबा ने पूछा कि शोषितों की मदद करना तो समझ में आता है, पर अत्याचारियों की मदद कैसे की जाए। रसूल सल्ल. ने कहा: उसका हाथ पकड़ लो (यानी उसे ग़लत मत करने दो)”(बुखारी:2443)। इन सब के बावजूद भी अगर मार-काट बंद ना हो और बिगाड़-फ़साद का सिलसिला ना रुके, तो फिर अल्लाह का यह ख़ास क़ानून काम करना शुरू कर देता है कि "तेरे पालनहार की पकड़ इसी तरह की होती है, जब वह किसी अत्याचार करने वालों की बस्ती को पकड़ता है। निश्चय उसकी पकड़ दुःखदायी और कड़ी होती है'' (हूद:102) इंसानी इतिहास इसका गवाह है।

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