यौन-अपराध (Sex-Crimes)

यौन-अपराध (Sex-Crimes)

यौन-अपराध (Sex-Crimes)

वर्तमान सभ्यता अपनी ही पैदा की हुई जिन बड़ी-बड़ी त्रासदियों (Tragedies) और अत्यंत घातक समस्याओं से जूझ रही है, उनकी सूची में यौन-अनाचार एवं यौन-अपराध को शीर्ष-स्थान पर रखा जा सकता है। इस विषय में हमारे देश में वस्तुस्थिति ‘ख़तरे के निशान' को पार करती दिख रही है। तत्संबंधित सरकारी महकमों से जारी वार्षिक आंकड़ों और मीडिया द्वारा मिलने वाली सूचनाओं से अनुमान होता है कि जब यौन-अपराध की उन घटनाओं की संख्या जिनकी रिपोर्ट पुलिस विभाग में दर्ज होती या दर्ज कराई जाती है इतनी अधिक है तो फिर उनकी अस्ल संख्या कितनी ज़्यादा होगी! छेड़-छाड़ (Eve-teasing), शारीरिक छेड़ख़ानी (Molestation), बलात्कार (Rape), अपहरण और बलात् दुष्कर्म के बाद हत्या, भाई-बहन तथा बाप-बेटी के पवित्र रिश्तों की टूट-पू$ट, छः महीने की शिशु से लेकर अस्सी साल की वृद्धा तक के साथ दुष्कर्म, अनैतिक यौन-संबंधी क़त्ल और फ़साद, ब्लूफ़िल्में बनाकर अवैध धंधों और ब्लैकमेलिंग के कारोबार, बालिकाओं व युवतियों को देह-व्यापार के धंधे में फंसाने; यहाँ तक कि विधवाश्रमों के शरण में रहती महिलाओं के नियोजित यौन-व्यापार के रैकेट्स तथा सामान्य समाज में ‘ससहमति व्यभिचार' (ज़िना बिल-रज़ा, Fornication) आदि की घटनाएँ हमारे समाज के नैतिक अस्तित्व तथा चारित्रिक ताने-बाने के लिए मंद ज़हर (Slow poision) का काम कर रही हैं। ससहमति व्यभिचार को हमारी सेक्युलर क़ानून-व्यवस्था में अपराध नहीं माना गया है। बिना विवाह एक साथ रहने और पति-पत्नी का-सा संबंध (Live-in Relations) रखने, यहाँ तक कि पत्नी का, घर से बाहर रातें किसी और के साथ बिताने की बात को ‘मौलिक मानव-अधिकार' के तर्क पर क़ानूनी वैधता व मान्यता दे दी गई है।
किसी समाज में जब नैतिकता का विघटन हो रहा हो, चरित्रहीनता को बढ़ावा मिल रहा हो; प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया दिन-रात, क्षण-क्षण समाज को अश्लीलता व नग्नता परोसने में तथा सिनेमा व टी॰वी॰ के परदे मन-मस्तिष्क में कामुकता व यौन-वासना की आग भड़काने एवं कामोत्तेजना की आँधियाँ चलाने में व्यस्त हों और समाज के भीतर की दुनिया अनैतिक संबंधों की प्रयोगशाला बनती जा रही हो, आध्यात्मिक मूल्यों को पराजय व विफलता की स्थिति में समाज के कोनों खुदरों में जाकर मुँह छुपाना पड़ रहा है तो साइंस व टेक्नॉलोजी की लाई हुई चमकदार उन्नति व प्रगति के भड़कदार दृश्यपट पर उगने और लहलहाने वाली, भौतिक सुख-संपन्नता की फ़सल, दम तोड़ते मानवीय मूल्यों को आहार, स्वास्थ्य व जीवन प्रदान नहीं कर सकती।
इस्लाम ने यौन-अपराध की समस्या को बड़ी सफलता से हल किया है। इस विषय में उसने तीन स्तरों पर काम किया है। एक: आध्यात्मिक व नैतिक स्तर; दो: सामाजिक स्तर; तीन: क़ानूनी स्तर।
1. आध्यात्मिक स्तर पर इस्लाम का काम : इस्लाम की विचारधारा यह है कि समाज के, चरित्रवान होने के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना अनिवार्य है क्योंकि व्यक्ति समाज की इकाई है; और व्यक्ति के चरित्रवान होने के लिए उसके अन्दर के इन्सान को चरित्रवान होना अनिवार्य। इसलिए बाहरी उपायों व उपचारों से पहले, इस्लाम मनुष्य का आध्यात्मिक आधार मज़बूत करता है, उसकी अन्तरात्मा की नाज़ुक व विशाल दुनिया में सुधार लाता, उसके अंतःकरण में सज्जनता, नेकी, परहेज़गारी, उत्तरदायित्व तथा ईशपरायणता के गुण उत्पन्न करता है। इस्लाम के अनुसार :
1. यौन-अनाचार को ‘अपराध' से पहले, ‘पाप' होने का आयाम दिया गया है। यह ईश्वर (और ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की नाफ़रमानी है, इसके लिए परलोक जीवन में सख़्त पकड़ होगी और कठोर, पीड़ादायक दंड दिया जाएगा।
2. हया, लज्जा और शील-रक्षा के जो तत्व इन्सानों में ईश्वर ने प्राकृतिक रूप से रखे हैं उन्हें प्रबल, सक्रिय और विकसित करने के लिए क़ुरआन और हदीस (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के कथनों) में बेशुमार शिक्षाएँ और आदेश दिए गए हैं।
3. प्रतिवर्ष लगातार एक महीने के रोज़े अनिवार्य करके खाने-पीने के साथ-साथ यौन-संभोग को भी भोर से सूर्यास्त तक वर्जित (हराम) क़रार देकर इतना आत्मिक बल पैदा कर दिया जाता है कि पुरुष/स्त्री कामुकता व यौन-उत्तेजना पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो जाएँ।
4. पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया : अगर तुम दो चीज़ों की हिफ़ाज़त की ज़मानत दो तो मैं तुम्हारे लिए स्वर्ग (जन्नत) की ज़मानत देता हूँ। एक: वह जो तुम्हारे दो जबड़ों के बीच है (अर्थात ज़बान), और दो: वह जो तुम्हारी रानों के बीच है (अर्थात् गुप्तांग)। (इस शिक्षा में यह तथ्य निहित है कि छोटे-बड़े अधिकांश पाप (झूठ, गाली-गलौज, दूसरों का अपमान, चुग़ली, परनिन्दा (ग़ीबत), ग़लत आरोप, बुरी व गंदी वार्ता, दूसरों का चरित्र हनन आदि) ज़बान से होते हैं; और यौन-अनाचार, यौन-दुष्कर्म, अनैतिक व अवैध संभोग गुप्तांगों से)।
5. ‘जो स्त्री बहुत बारीक (पारदर्शी) वस्त्र पहने वह (जन्नत (स्वर्ग) में जाना तो बहुत दूर की बात, स्वर्ग की ख़ुशबू भी नहीं पाएगी' यह शिक्षा पैग़म्बर (सल्ल॰) ने दी।
6. ‘यौन-वासनावश जिसने किसी पराई स्त्री का शरीर छुआ, परलोक जीवन में, नरक में उसके शरीर का मांस आग के कंधों से नोचा, भंभोड़ा जाएगा।' (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ की हदीस)।
2. समाज के स्तर पर इस्लाम का काम : आध्यात्मि व नैतिक स्तर पर इन्सान को दुरुस्त करने के साथ इस्लाम समाज को भी दुरुस्त करने का भरपूर प्रयोजन करता है क्योंकि सामाजिक स्तर पर यदि बुराई मौजूद रहे; उसे पनपने का अवसर एवं वातावरण मौजूद रहे; उसे रोकने की एहतियाती तदबीरें समाज न करता हो तो ऐसा होना बड़ी हद तक मुम्किन है कि व्यक्तिगत स्तर की नैतिकता व आध्यात्मिकता सामाजिक स्तर पर मौजूद बुराइयों से प्रभावित हो जाए। क़ुरआन में, मुस्लिम समुदाय को आदेश दिया गया है ‘भलाइयों का हुक्म देने और बुराइयों को रोकने' का (3:104)। इस काम को मुस्लिम समुदाय का कर्तव्य बताते हुए उसे ‘उत्तम गिरोह' कहा गया है (3:110) तथा इसे उसका गुण और विशेषता कहा गया है (9:71, 112;22:41)।
(1) सबसे पहले इस्लाम ने पुरुष-स्त्री संबंध को संहिताबद्ध (codify) किया। दो श्रेणियां बनाईं। जिनके बीच शादी नहीं हो सकती है उन्हें ‘महरम' (एक-दूसरे पर यौन-संबंध के लिए ‘हराम') और जिनके बीच शादी हो सकती है उन्हें ‘ना-महरम' की श्रेणी में रखा।
(2) घर से बाहर, सामाजिक क्षेत्र में ‘ना-महरम' (स्त्री-पुरुष) के स्वच्छंद, आज़ादाना, बेतकल्लुफ़ व बेरोकटोक मेल-जोल पर पाबंदी लगाई। घर व ख़ानदान तथा रिश्तेदारों के अन्दर के नामहरमों के मेलजोल की आचार-संहिता (code of conduct) बनाई ताकि जहाँ आमतौर पर, या हर वक़्त का मेल-जोल, उठना-बैठना, रहना-सहना आज़ादी के साथ हुआ करता है वहाँ अनैतिक संबंध की संभावना न रह पाए।
(3) घर से बाहर निकलने पर औरतों को परदा करने का हुक्म दिया गया ताकि पराए पुरुष औरत की ओर आकर्षित न हों। परदे का लिबास किस काट-छाँट और स्टाइल, डिज़ाइन, रंग का हो, इसे निश्चित न करके, बस यह मूल-निर्देश दे दिया गया कि लिबास चुस्त न होकर ढीला-ढाला हो और शरीर को पूरी तरह ढक ले (9:31)।
(4) ‘स्त्री, पुरुष दोनों के लिए ‘सतर' निश्चित कर दिया गया, अर्थात् ‘छुपा कर, ढक कर रखे जाने वाले शरीर-अंग'। स्त्रियों के लि चेहरा और हथेलियाँ छोड़कर सारा शरीर; और पुरुषों के लिए नाभि से नीचे रानों (जंघों) तक का हिस्सा ‘सतर' क़रार दिया गया। आदेश दिया गया कि मर्द और औरतें, किसी भी मर्द और औरत के सामने (सिवाय पति-पत्नी के) अपना सतर नहीं खोल सकतीं।
(5) औरत के ‘सतर' में चेहरा शामिल न करने का कारण यह है कि कामकाज में उसे परेशानी न हो और पारिवारिक व सामाजिक क्रिया-कलाप में कठिनाई न हो। इसके सिवाय (जब चेहरा खोलना ज़रूरी न रहे) चेहरे को भी ढाँकने का आदेश दिया गया है (33:59)। क़ुरआन ने घूँघट करने का हुक्म दिया है। लेकिन अस्ल उद्देश्य पूरा हो तो कोई दूसरा तरीक़ा (जैसे निक़ाब, बुरक़अ वग़ैरह) भी पहना जा सकता है क्योंकि इससे बाहरी काम करने में (घूँघट की तुलना में) आसानी हो सकती है। शिक्षा दी गई है कि बुरक़अ ऐसा रंग-बिरंगा, चटक-शोख़, भड़कदार न हो कि पुरुषों को आकर्षित करे। विदित हो कि अनैतिक यौनाचार, व्यभिचार, अवैध यौन संबंध का ‘प्रथम-बिन्दु' और ‘प्रवेश-द्वार' औरत का ‘चेहरा' ही होता है। हर व्यक्ति, छल-कपट से रहित होकर ज़रा-सा भी ग़ौर करे तो उसकी बुद्धि (अक़ल) और अन्तरात्मा (ज़मीर) इस बात की पुष्टि करेगी, समाज के तजुर्बे भी इसकी पुष्टि करते हैं।
(6) चेहरे को ‘सतर' में शामिल न करने और आवश्यकतानुसार खुला रखने की आज्ञा के साथ यह एहतियाती शर्त भी लगा दी गई है कि पराए पुरुषों (अर्थात् पति के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति) को आकर्षित करने, उसका दिल लुभाने के लिए औरत चेहरे का बनाव-श्रृंगार (Make-up) न करे। दूसरों के साथ लोचदार आवाज़ और ऐसे मीठे व लुभावने अंदाज़ में बात न करें कि उनके मन में दुर्भावना का बीज पड़ जाए।
(7) शिक्षा दी गई कि पत्नी, अपने पति के लिए अधिक से अधिक आकर्षणपूर्ण बनने के लिए साज-सज्जा, बनाव-श्रृंगार करे ताकि पति की यौन-भावना, बाहर इधर-उधर भटकने तथा ग़लत रास्ते पर पड़ जाने के बजाए अपनी पत्नी पर ही केन्द्रित, उसी तक सीमित रहे।
(8) औरतें ज़रूरत पड़ने पर खुले चेहरे के साथ बाहर निकलें तो उन्हें देखकर पुरुषों में (या पुरुषों को देखकर औरतों में) दुर्भावना पैदा होने की संभावना रहती है। इसलिए क़ुरआन में अल्लाह का हुक्म आया है कि अपनी निगाहें नीची रखा करो (24:30)। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने शिक्षा दी: ‘अचानक निगाह पड़ सकती है, (यह एक व्यावहारिक तथ्य है), निगाह हटा लो। दोबारा-तिबारा निगाह मत डालो। पहली निगाह तुम्हारी अपनी थी, बाद की निगाहें शैतान की होंगी। अर्थात् यहाँ से तुम्हें ग़लत रास्ते पर डालने के लिए शैतान का काम शुरू हो जाता है।
(9) इस्लाम के अनुसार ‘स्वर्ग-प्राप्ति' इन्सान का अस्ल मक़सद, उसका अभीष्ट है; स्वर्ग ही उसकी आख़िरी मंज़िल है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया, ‘जो औरत बारीक, पारदर्शी कपड़े का लिबास पहने (पराए पुरुषों, यानी ‘ना-महरमों' को लुभाने, रिझाने के लिए) वह (स्वर्ग में जाना तो दूर की बात,) स्वर्ग की ख़ुशबू भी नहीं पा सकती।' (यानी उसे नरक ही में जाना होगा।)
(10) पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने शिक्षा दी: ‘दो (जवान) पुरुष, स्त्री एकांत में न रहें। जब वह एकांत में होते हैं तो वे केवल ‘दो' ही नहीं होते बल्कि उनके बीच इक ‘तीसरा' भी होता है, वह है ‘शैतान'। अर्थात् शैतान दोनों की काम-भावना को उकसा-उकसा कर अनाचार की ओर खींचने में लग जाता है।
(11) आज के ज़माने में कामोत्तेजक दृश्य समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं द्वारा; तथा ऐसे ही चलते-फिरते, यौन-उत्तेजना को भड़काने वाले दृश्य टी॰वी॰ व इन्टरनेट द्वारा, हमारे घरों के अन्दर तक घुस आए हैं। अतः भाई-बहन के पवित्र रिश्तों की पवित्रता के छिन्न-भिन्न होने की घटनाएँ घटने लगी हैं। शाश्वत धर्म इस्लाम ने 1400 वर्ष पहले ही चेतावनी देते हुए आदेश दिया था कि जवान भाई-बहन भी बन्द कमरे में एकान्त में न सोएँ।
(12) पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने आदेश दिया कि ‘लड़की बालिग़ हो जाए तो उसका विवाह करने में देर न करो।'
(13) विधवा के पुनः विवाह को इस्लाम ने प्रोत्साहित किया है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा (Social and Financial Security) के साथ-साथ उस की यौन-सुरक्षा (Sexual Security) का भी पुख़्ता इन्तिज़ाम हो जाए। कुंवारे लोगों का किसी विधवा (या तलाक़शुदा) औरत से विवाह करना लगभग एक असंभव बात है इसलिए इस्लाम में एक से अधिक पत्नी रखने की जो गुंजाइश रखी गई है, वह उस आवश्यकता की पूर्ति कर देती है।
(14) इस्लाम ने विवाह-प्रक्रिया को अत्यंत आसान (कम ख़र्चीला) बनाने का आदेश दिया है ताकि ख़र्च का पैसा जुटाते इतनी देर न हो जाए कि नवयुवक, नवयुवतियाँ यौन-अनाचार के ख़तरे में पड़ जाएँ।
3. क़ानून के स्तर पर इस्लाम का काम : इस्लाम की ख़ूबी और विशेषता यह है कि वह अपराध हो जाने के बाद क़ानून का डंडा लेकर आने; पकड़-धकड़, गिरफ़्तार करने, और मुक़दमा चलाकर सज़ा देने का काम बिल्कुल आख़िर में करता है (जबकि सेक्युलर व्यवस्था में अपराध से निपटने के काम की शुरुआत यहाँ से होती है)। इस्लाम, क़ानूनी सक्रियता से पहले, ज़्यादातर काम, अपराध हो जाने से बहुत पहले शुरू कर देता है, यानी उपरोक्त दो (आध्यात्मिक व सामाजिक) स्तरों पर इतना अधिक काम कर चुकता है कि अपराध की घटनाएँ लगभग 95-98 प्रतिशत ख़त्म हो जाती हैं, घटित ही नहीं होतीं। बाक़ी 2-5 प्रतिशत घटनाओं के लिए वह अत्यंत सख़्त क़ानून और कठोरतम दंड का प्रावधान करता है।
यौन-अपराध न हों इसके लिए इस्लाम के द्वारा उठाए गए क़दमों में से मात्र कुछ (बीस) शिक्षाओं और आदेशों को, ऊपर संक्षेप में लिखा गया। इसके बाद भी यदि कुछ लोग (स्त्री-पुरुष) यौन-अपराध कर बैठें तो इस्लाम की दृष्टि में वे इतने बिगड़ चुके हैं, उनकी प्रकृति व चरित्र में इतना विकार व बिगाड़ आ चुका है कि न वे ख़ुदा से डरते, न नरक की सज़ा की चिंता करते, न समाज में गंदगी फैलाने से रुकते, ने अपनी व परिवार-कुटुम्ब की बदनामी की फ़िक्र उन्हें होती, न ही मानवीय मूल्यों के महत्व व गौरव-गरिमा की उनको कोई चिंता होती है। इस्लाम ऐसे लोगों को ‘समाज के शरीर का नासूर और कैंसर' मानता है। अतः वह निम्नलिखित प्रकार से नासूर का ऑपरेशन करके, या कैंसरयुक्त अंग को काटकर समाज के शरीर से अलग कर देता और बाक़ी शरीर (बृहद्तर समाज) को, यह रोग पै$लने से बचा लेने का प्रावधान करता-अर्थात् अपनी क़ानून व्यवस्था को क्रियान्वित कर देता है:
(1) दोषी पुरुष-स्त्री-दोनों या कोई एक-यदि विवाहित हैं तो पत्थर मार-मारकर हलाक कर देने (मार डालने) की सज़ा दी जाती है।
(2) यदि दोनों, या कोई एक, अविवाहित हो तो ‘सौ कोड़े' मारने की सज़ा निर्धारित की गई है।
(3) इन सज़ाओं में कुछ कमी-बेशी नहीं की जा सकती। दया-याचना (Mercy Appeal) की कोई गुंजाइश नहीं। जज तो जज, राष्ट्राध्यक्ष को भी सज़ा में कमी या माफ़ी का तनिक भी अधिकार प्राप्त नहीं है क्योंकि यह ‘शरीअ़त का क़ानून' है; और शरीअ़त अल्लाह के द्वारा बनी है। (उसकी यथा-अवसर व्याख्या अल्लाह ही की रहनुमाई में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) द्वारा हुई है)। यही क़ानून इस्लामी राज्य-व्यवस्था में हमेशा-हमेशा लागू होता रहेगा।
(4) सज़ाएँ, खुलेआम, जनसामान्य के सामने देने का आदेश है ताकि लोग दुष्कर्म से बचने के लिए डर और ख़ौफ़ रखें और यह ख़ौफ़ दुराचारी लोगों की काम-वासना की अनैतिक अग्रसरता (Immoral Advancement) की भावना पर भारी पड़ जाए।
(5) सेक्युलर क़ानून में ‘ससहमति व्यभिचार' (Fornication) को अपराध नहीं माना गया है। इस्लाम में इसे भी बराबर का अपराध माना गया है। सेक्युलर क़ानून ससहमति व्यभिचार को ‘व्यक्तिगत मानव अधिकार' की श्रेणी में रखकर, उससे कुछ लेना-देना अनुचित समझता है। इस्लामी क़ानून उसे ‘सामाजिक अपराध' की श्रेणी में रखकर उसका सख़्त और भरपूर नोटिस लेता है। इसके साथ ही इस तथ्य को भी गंभीरता से लेता है कि जो व्यक्ति ससहमति व्यभिचार करके चरित्राहीनता की पस्ती में गिर जाए उसका अगला क़दम बलात्कार की ओर बढ़ जाने की संभावना काफ़ी हो जाती है। फिर क्यों न उसे पहले क़दम पर ही सज़ा दे दी जाए।
कुछ वर्ष पहले राष्ट्रीय महिला आयोग (National Woman Commission) की अध्यक्षा ने; और उसके दो-तीन वर्ष बाद एक पार्टी के शीर्ष नेता ने कहा था कि ‘बलात्कारी को मृत्यु-दंड (Death-sentence) दे देना चाहिए।' लेकिन यह मात्र व्यक्तिगत उद्गार था। यह आवाज़ समाचार पत्रों के किसी कोने में छपकर दब गई, ख़त्म हो गई। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। बलात्कार के कारकों को उत्पन्न करने, बढ़ावा देने, तथा इसके अवसरों की उपज बढ़ाने वाली व्यवस्था में मृत्यु-दंड के औचित्य पर एक बड़ा प्रश्न-चिन्ह लग जाता है। पहले इस चिन्ह का निवारण आवश्यक है। इस्लाम अपनी व्यवस्था पर यह प्रश्न-चिन्ह लगने ही नहीं देता, इसलिए उसका काम आसान हो जा�

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