युद्ध में उदारता की इस्लामी शिक्षाएं

युद्ध में उदारता की इस्लामी शिक्षाएं

इंसानी समाज कभी युद्ध से ख़ाली नहीं रहा है। चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् और इतिहासकार इब्ने ख़लदून अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘मुक़द्दमा’ में लिखते हैं कि, “अल्लाह ने जब से इस संसार की रचना की है तभी से यहाँ जंगें और लड़ाइयाँ होती आ रही हैं।“ वह अपने विचार व्यक्त करते हुए आगे कहते हैं कि, “युद्ध मानव प्रकृति का एक हिस्सा है और कोई समुदाय और गिरोह इससे बचा हुआ नहीं है।“  
युद्ध क्यों?
युद्ध क्यों होते हैं? एक राष्ट्र दुसरे राष्ट्र पर आक्रमण क्यों करता है? यह और इस प्रकार के बहुत सारे प्रश्न हैं जिनका उत्तर इंसान ढूंढता रहता है, पर कहीं से कोई संतोषजनक बात सामने नहीं आती। ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार युद्ध की परिभाषा इस प्रकार है: 
1. सशस्त्र संघर्ष विभिन्न राष्ट्रों के बीच या किसी देश के विभिन्न समूहों के बीच।
2. विभिन्न लोगों या समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा या शत्रुता की स्थिति।
3. अवांछनीय स्थिति या गतिविधि के ख़िलाफ़ एक निरंतर अभियान। 
उपर्युक्त परिभाषा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सिर्फ़ राष्ट्रों के बीच ही नहीं, एक राष्ट्र के भीतर विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष या उनके विरुद्ध निरन्तर अभियान को भी युद्ध की परिभाषा में शामिल किया जाता है। इस विस्तृत परिभाषा को सामने रखते हुए समाजशास्त्री युद्ध के आठ मुख्य कारण बताते हैं:
1. आर्थिक लाभ
2. क्षेत्रीय लाभ
3. धर्म
4. राष्ट्रवाद
5. बदला 
6. गृह युद्ध 
7. क्रांतिकारी युद्ध
8. रक्षात्मक युद्ध        
प्रायः देखा यह गया है कि किसी भी युद्ध के पीछे इनमें से मात्र कोई एक ही कारण नहीं होता बल्कि एक से अधिक कारण होते हैं। कितनी बार तो वास्तविक कारण कभी सामने नहीं आते। अब तक हो चुके दोनों विश्वयुद्ध में राष्ट्रवाद, क्षेत्रीय और आर्थिक लाभ और बदले की भावना के साथ धर्म का रोल भी रहा है। और यह कहना ग़लत न होगा कि इन दोनों विश्वयुद्धों में करोड़ों इंसानों के क़त्ल के साथ नैतिकता का क़त्ल भी कर दिया गया था और छल-कपट की सारी सीमाएं तोड़ दी गईं थीं। यही कुछ अमरीका द्वारा विएतनाम, इराक़ और अफगानिस्तान पर किए गए आक्रमण में भी देखने को मिला।   

इस्लाम और युद्ध 
इस्लाम अपने मानने वालों को अत्यन्त अनिवार्य कारणों में अन्तिम उपाय के रूप में ही युद्ध की अनुमति देता है और उन्हें बाध्य करता है कि वह अल्लाह द्वारा निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन करने से हर हाल में बचें। इस्लाम में युद्ध न क्षेत्रीय व आर्थिक लाभ के लिए होता है और न धरम अथवा राष्ट्रवाद के नाम पर बल्कि उसका उद्देश्य होता है इंसानों को उत्पीरण, भ्रष्टाचार और अन्याय से बचाना और एक ऐसा शांतिप्रिय वातावरण स्थापित करना जिसमें हर व्यक्ति स्वतंत्रता से अपनी मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत कर सके। कुरआन में इन आदर्शों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया है:
“अनुमति दी गई उन लोगों को जिनके विरुद्ध युद्ध किया जा रहा है, क्योंकि उनपर ज़ुल्म किया गया – और निश्चय ही अल्लाह उनकी सहायता की पूरी सामर्थ्य रखता है। ये वे लोग हैं जो अपने घरों से नाहक़ निकाले गए, केवल इसलिए कि वे कहते हैं कि “हमारा रब अल्लाह है।“ यदि अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के द्वारा हटाता न रहता तो मठ और गिरजा और यहूदी प्रार्थना भवन और मस्जिदें, जिनमें अल्लाह का अधिक नाम लिया जाता है, सब ढा दी जातीं। अल्लाह अवश्य उसकी सहायता करेगा, जो उसकी सहायता करेगा – निश्चय ही अल्लाह बड़ा बलवान, प्रभुत्वशाली है।“  (कुरआन 22:39-40)
“तुम्हें क्या हुआ है कि अल्लाह के मार्ग में और उन कमज़ोर पुरुषों, औरतों और बच्चों के लिए युद्ध न करो, जो प्रार्थनाएँ करते हैं कि "हमारे रब! तू हमें इस बस्ती से निकाल, जिसके लोग अत्याचारी हैं। और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई समर्थक नियुक्त कर और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई सहायक नियुक्त कर।" (कुरआन 4:75)
“धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं। सही बात नासमझी की बात से अलग होकर स्पष्ट हो गई है। तो अब जो कोई बढ़े हुए सरकश को ठुकरा दे और अल्लाह पर ईमान लाए, उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं। अल्लाह सब कुछ सुनने, जाननेवाला है।“ (कुरआन 2:256)
इतना ही नहीं, इस्लाम ने युद्ध के समय के लिए भी मुसलमानों को इंसानियत और उदारता का दामन न छोड़ने का आदेश दिया और इसके लिए एक विस्तृत मार्गदर्शन भी प्रदान किया है। हज़रत मुहम्मद(सल०) सैनिकों को युद्ध के लिए भेजते हुए निम्नलिखित आदेश दिया करते थे।
1. जंग सिर्फ़ उन्हीं लोगों से की जाएगी जो मुक़ाबले पर होंगे। दुसरे लोगों पर हमला नहीं किया जाएगा।
जो लोग फ़ौजियों को खाना-पानी और दवा पहुंचा रहे हों उनको नुक़सान नहीं पहुँचाया जाएगा। इनमें डॉक्टर, नर्स आदि शामिल हैं। कुरआन का स्पष्ट आदेश है कि:
“और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़ते हैं, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।“ (कुरआन 2:190)
मिस्र(Egypt) के सुलतान अल-कामिल ने पांचवी क्रूसेड में रोमन फ़ौजियों को पराजित करने के बाद उनसे जिस प्रकार से उदारता का व्यवहार किया था, उसको स्वीकार करते हुए उस समय का ईसाई पादरी ओलिवर(Oliver) लिखता है: 
“जिन लोगों के माता-पिता, बेटे और बेटियाँ, भाई-बहन, हमारे हाथों तड़पा-तड़पा कर मारे गए थे, जिनकी ज़मीनों पर हमने क़ब्ज़ा कर लिया था, जिन्हें हमने उनके घरों से नंगा कर के निकाल दिया था, उन लोगों ने हमें  अपने भोजन से पुनर्जीवित किया जब हम भूख से मर रहे थे, और हम पर नम्रता और कृपा की वर्षा करते रहे जबकि हम पूरी तरह उनके अधीन हो चुके थे।“
2. धोखा देने को इस्लाम पसंद नहीं करता और जंग की हालत में भी इसके विरुद्ध नहीं जाया जा सकता। 
इस्लाम दुश्मनों से भी अच्छा व्यवहार करने की शिक्षा देता है और उनसे किए हुए समझौतों के पूर्णरूप से पालन का आदेश देता है। समझौतों को एकतरफ़ा ख़त्म करना धोखा और ग़द्दारी है और इस्लाम इसे पसंद नहीं करता। हज़रत मुहम्मद का कथन है: 
"आख़िरत के दिन हर गद्दार के पास एक बैनर होगा, जिसके द्वारा वह जाना जाएगा।"   (बुखारी व मुस्ल)
इस्लाम के दुसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर, जिनके नाम से पूरी दुनिया परिचित है, ने अपनी फ़ौज से जो बात कही थी वह सुनहरे अक्षरों में लिखने योग्य है। उन्होंने कहा था: 
“जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, मैं उसकी क़सम खा कर कहता हूँ अगर तुममे से कोई अपने दुश्मन के सामने आसमान की ओर ऊँगली उठा कर यह संकेत देता है कि उसकी जान को कोई ख़तरा नहीं है और फ़िर उसे मार देता है, तो इसके लिए मैं उसकी जान ले लूँगा।“
3. किसी भी बच्चे, महिला, बूढ़े या बीमार व्यक्ति को नहीं मारा जा सकता।
बच्चो, बूढ़े या महिलायें यदि युद्ध में हिस्सा नहीं ले रहे हैं, तो इस्लाम उनको मारने की अनुमति नहीं देता। इसी प्रकार अन्धे, अपाहिज और विक्षिप्त व्यक्ति को भी नहीं मारा जा सकता। कुरआन का स्पष्ट आदेश है कि, “अल्लाह की राह में तुम उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़ते हों”।   
अपनी फ़ौज को युद्ध पर भेजते हुए हज़रत मुहम्मद यह आदेश दिया करते थे: 
"युद्ध के लिए जब भी निकलो अल्लाह के लिए निकलो और जब भी युद्ध करो सिर्फ़ अल्लाह के लिए करो। महिलाओं, बच्चों, शिशुओं और अत्यन्त बूढ़ों पर हमला मत करो, युद्ध के मैदान में जो कुछ भी माल हाथ लगे उसमें चोरी मत करो। अच्छा व्यवहार करो, क्योंकि अल्लाह अच्छा व्यवहार और पवित्र रहने वालों को प्यार करता है। (हदीस: मुस्लिम)
4. मृत शरीर की विकृति नहीं की जा सकती।
इस्लाम का मानना है कि इन्सान का शरीर अल्लाह की अमानत है और इसकी इज़्ज़त की रक्षा हर हाल में होनी चाहिए। मृत्यु पश्चात् भी। यही कारण है की युद्ध में भी मुसलमानों को अपने दुश्मन के शरीर को नुक़सान पहुचाने यह उसके अंगों को काटने से सख्ती से रोका गया है। इसी प्रकार शरीर को आग में जलाने से भी रोका गया है चाहे वह दुश्मन का मृत्य शरीर ही क्यों न हो। इसी को आधार बना कर मुस्लिम विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि ऐसे हथियार का इस्तेमाल भी प्रतिबन्ध की इसी श्रेणी में आता है जिनसे शरीर के जलने का खतरा हो।
5. पेड़ों को न तो जलाया न उखाड़ा जाएगा, न फ़लदार पेड़ों को काटा जाएगा। 
पुराने समय में भी और आज भी युद्ध की प्रथा यही है कि हर वह कार्य स्वीकार्य है जिससे विजय निश्चित की जा सके या दुश्मन को कुछ हानि पहुंचाई जा सके। इस्लाम युद्ध को अनैतिक तरीक़े से जीतने को न पसंद करता, न इसकी अनुमति देता है। पेड़-पौधे समाज की आवश्यकता और उसका धरोहर हैं और इनसे इंसानों का भला होता है। यही कारण है कि उनको काटने, जलाने या बर्बाद करने को इस्लाम मना करता है। हज़रत मुहम्मद और उनके बाद भी यह प्रथा बन गई थी की सेना को युद्ध के लिए भेजते समय दिए जाने वाले निर्देशों में पेड़ों को न काटने या जलाने का निर्देश भी होता था।   
6. किसी जानवर या मवेशी का वध नहीं किया जा सकता सिवाए भोजन के लिए। 
जानवर भी अल्लाह की ही श्रृष्टि हैं और उनका जीवन भी बड़ा महत्व रखता है। भोजन के रूप में उपयोग किए जाने के अतिरिक्त इस्लाम जानवरों को मारने की अनुमति नहीं देता। और देता भी है तो इस शर्त के साथ कि उसे कम से कम तकलीफ़ हो। मुसलमान अल्लाह की अनुमति से ही जानवरों को भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं और वह भी सिर्फ़ उन जानवरों को जिनकी अनुमति उसने दी है। जानवरों के जीवन की रक्षा का आदेश युद्ध में भी लागू होता है। हज़रत मुहम्मद(सल०) ने जानवरों को कष्ट देने और अनावश्यक रूप से उन्हें मारने को मना करते हुए कहा है कि: 
“जो भी किसी जानवर को मरेगा चाहे वह एक चिड़िया ही क्यों न हो, जबकि उसको इसका अधिकार न हो, अल्लाह उससे इस सम्बन्ध में ज़रूर पूछेगा।“ (हदीस: अहमद, निसाई)   
7. मठों के भिक्षुओं को या पूजा स्थलों पर बैठे लोगों को नहीं मारा जाएगा। 
इस्लाम दूसरों के पूजा स्थलों और हर उस स्थान को नुक़सान पहुँचाने से रोकता है जहाँ किसी न किसी रूप में अल्लाह की इबादत की जाती हो। इसी प्रकार दूसरों की धार्मिक पुस्तकों का अनादर करने को भी इस्लाम सख्ती से मना करता है। कुरआन में आया है कि: 
"यदि अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के द्वारा हटाता न रहता तो मठ और गिरजा और यहूदी प्रार्थना भवन और मस्जिदें, जिनमें अल्लाह का अधिक नाम लिया जाता है, सब ढा दी जातीं। अल्लाह अवश्य उसकी सहायता करेगा, जो उसकी सहायता करेगा – निश्चय ही अल्लाह बड़ा बलवान, प्रभुत्वशाली है।“  (कुरआन 22:40)
इसपर समस्त विद्वान् एकमत हैं की इस आयात में दुसरे धर्म के धार्मिक स्थलों की रक्षा का आदेश दिया गया है। यह और इसी प्रकार की दूसरी शिक्षाओं का असर है कि लोगों द्वारा लगातार ईश्वरीय पुस्तक कुरआन जलाए जाने व मसजिदों का अनेकों बार किए गए अनादर के जवाब में मुसलामानों द्वारा उनकी धार्मिक पुस्तकों को जलाने या उनके धार्मिक स्थलों के अनादर की घटनाएं देखने में नहीं आतीं।  
8. गाँवों और शहरों को नष्ट नहीं किया जाएगा, न खेतों और बाग़ों को ख़राब किया जाएगा।
बदले की भावना से प्रेरित फौजें जब भी किसी शहर में प्रवेश करती हैं तो चारों ओर लूटमार का बाज़ार गर्म कर देती हैं। खेतों और बाग़ों को उजाड़ कर उसमें आग लगा देती हैं और हर तरफ़ तबाही फैलाती हैं। बग़दाद और अफगानिस्तान पर अमरीका का हमला हो या चेचेन्या पर रूस का। जिस प्रकार से शहरों पर बमबारी की गई थी वह किसी से छिपा नहीं है। परन्तु इस्लाम इस प्रकार के किसी भी अनैतिक कार्य से अपने मानने वालों को रोकता है और हर प्रकार के संसाधनों को नष्ट करने से मना करता है। 
9. लोग तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करें तो उनके साथ तुम भी अच्छा व्यवहार करना। और यदि    वह बुरा व्यवहार करें तो उन्हें माफ़ कर देना।
इस्लाम में युद्ध का उद्देश्य मुल्कों और वहां के संसाधनों पर क़ब्ज़ा करना नहीं है। युद्ध की अनुमति इस्लाम अपरिहार्य स्थिति में अपने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए ही देता। वह लोगों के सरों को नहीं, दिलों को जीतना चाहता है। और यह अच्छे व्यवहार से ही संभव है। कुरान की शिक्षा है कि: 
“भलाई और बुराई समान नहीं हैं। तुम (बुरे आचरण की बुराई को) अच्छे से अच्छे आचरण के द्वारा दूर करो। फिर क्या देखोगे कि वही व्यक्ति तुम्हारे और जिसके बीच वैर पड़ा हुआ था, जैसे वह कोई घनिष्ट मित्र है।“    (कुरआन 41:34)
इसी नीति का असर था कि मुसलमानों ने जिस भी देश में प्रवेश किया, वहां की जनसँख्या के बहुत बड़े हिस्से ने इस्लाम से प्रभावित होकर उसे स्वीकार कर लिया। भारत में मुसलमानों की इतनी बड़ी जनसँख्या इसका सबसे बड़ा उदहारण है।  
10. क़ैदियों को मारा नहीं जाएगा।
इस्लाम की शिक्षा है कि पराजित दुश्मन के लोगों को मारा नहीं जाएगा बल्कि उन्हें क़ैदी बनाया जाएगा। कुरआन का आदेश है:
“अतः जब इनकार करनेवालों से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो (उनकी) गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब उन्हें अच्छी तरह कुचल दो तो बन्धनों में जकड़ो, फिर बाद में या तो एहसान करो या फ़िदया (अर्थ-दंड) का मामला करो, यहाँ तक कि युद्ध अपने बोझ उतारकर रख दे। यह भली-भाँति समझ लो, यदि अल्लाह चाहे तो स्वयं उनसे निपट ले। किन्तु (उसने यह आदेश इसलिए दिया) ताकि तुम्हारी एक-दूसरे के द्वारा परीक्षा ले। और जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाते हैं उनके कर्म वह कदापि अकारथ न करेगा।“  (कुरआन 47:4)
मुसलमानों ने हज़रत मुहम्मद(सल०) द्वारा दिया गए युद्ध के इन अत्यन्त उदारवादी आदेशों का पालन करने का भरपूर प्रयत्न किया, जिनके उदाहरणों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। उनमें से कुछ उदहारण यहाँ प्रस्तुत हैं:
1. मक्का की विजय के अवसर पर पवित्र पैगंबर हज़रत मुहम्मद(सल०) द्वारा प्रदर्शित गरिमापूर्ण रवैये के लिए इतिहास में कोई समानता नहीं है। उनके 11 वर्षों के विपक्षी और कट्टर दुश्मन, जिन्होंने उन्हें और उनके साथियों को पीड़ा और कष्ट देने में सारी हदें पार कर दी थीं, अपमानित और शर्म से सिर झुकाए उनके सामने खड़े थे, और सख्त बदला लिए जाने का इंतजार कर रहे थे। वे सख्त सजा के हकदार थे और इसी की उन्हें उम्मीद थी। लेकिन पैगंबर हज़रत मुहम्मद(सल०) दुनिया में बदला लेने के लिए नहीं आये थे। वह तो इंसानियत और नैतिकता को उनकी पराकाष्ठा तक पहुँचाने का उद्देश्य रखते थे। उन्होंने घोषणा की कि वह उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करेंगे जिस तरह पूर्व में हज़रत युसूफ(अल०) ने अपने क्रूर भाइयों के साथ किया था और जिसको कुरआन में इन शब्दों में दर्ज किया गया है:
उसने कहा, "आज तुमपर कोई आरोप नहीं। अल्लाह तुम्हें क्षमा करे। वह सबसे बढ़कर दयावान है। (कुरआन 12:92)
यह कहते हुए उन्होंने अपने दुश्मनों को माफ़ कर दिया। इतना ही नहीं, आप ने उन्हीं में से एक नौजवान को अपने पीछे मक्का शहर का गवर्नर भी नियुक्त किया। 
2. येरुसलम पर जब ईसाइयों ने हमला किया था तो उस शहर की ईंट से ईंट बजा दी थी और चारों ओर लाशों के ढेर लगा दिए थे। पर 1187 में जब सलाहउद्दीन अय्यूबी ने येरुसलम को आज़ाद कराया तो उन्होंने अपने सैनिकों को सख्त आदेश दिया कि कोई भी बदले की भावना से युद्ध नहीं करेगा। उनके सैनिक इतने अनुशासित थे कि ईसाइयों के हथियार दाल देने के उपरान्त न किसी को क़त्ल किया गया, न कोई लूट-मा�

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