ज़कात: ग़रीबी उन्मूलन का एक सत्यापित मार्ग

ज़कात: ग़रीबी उन्मूलन का एक सत्यापित...

गरीबी एक ऐसी चुनौती है जिसका सामना मानव जाति को लगभग सदा से रहा है और आज भी है। पिछली कई दहाइयों में ग़रीबी उन्मूलन के अनेक विश्वयापी प्रयत्नों के उपरान्त भी समाज से ग़रीबी को दूर नहीं किया जा सका है और निरन्तर इसका विस्तार होता जा रहा है। यह अब मात्र कुछ पिछड़े देशों तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि इसकी चपेट में अब विकासशील और विकसित देश भी आने लगे हैं। इसी के साथ अमीरी और ग़रीबी के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन चौड़ी होती जा रही है जिसमें अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब होता जा रहा है। इस समय पूरे विश्व में फ़ैली कोरोना महामारी ने यह ख़तरा उत्पन्न कर दिया है कि, रोज़गार और आमदनी के अभाव में, गरीबों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो सकती है। 
ग़रीबी की परिभाषा समय के साथ परिवर्तित होती रही है। विश्व बैंक गरीब उसे मानता है जिसकी प्रतिदिन की अवसत आय 1.9 डॉलर (वर्तमान दर के अनुसार 144/- रूपये) से कम हो। हमारे देश भारत में ग़रीबी का निर्धारण करने के लिए ‘उपभोग व्यव’ (consumption expenditure) पर आधारित एक ‘ग़रीबी रेखा’ परिभाषित की गई है जिसके नीचे आने वाला हर व्यक्ति गरीब की श्रेणी में माना जाता है। गाँव में यह संख्या 25.7% और शहरी क्षेत्रों में 13.7% तक अनुमानित की गई है।    
जून 2018 में प्रकाशित विश्व असमानता रिपोर्ट (World Inequality Report) में प्रस्तुत आंकड़े अत्यंत चौकाने वाले हैं। इन आकड़ों से स्पष्ट हो जाता हैं कि ग़रीबी का मुख्य कारण संसाधनों का असमान वितरण है। इन आंकड़ों के अनुसार 
विश्व के 1% सबसे अमीर, दुनिया की दौलत का 50% कण्ट्रोल करते हैं।
विश्व के 10% चोटी के अमीरों का विश्व की कुल दौलत के 85% पर क़ब्ज़ा है। 
विश्व के 30% सबसे अमीर, विश्व की कुल दौलत के 97% पर कण्ट्रोल रखते हैं। 
भारत की 73% दौलत पर मात्र 1% अमीरों का क़ब्ज़ा है। 
भारत की 27.5% आबादी ग़रीब और 8.6% अत्यन्त ग़रीब की श्रेणी में आती है। 

  असामनता के इस वातावरण में ग़रीबी उन्मूलन के लिए किया जाने वाला कोई भी संघर्ष सफ़ल नहीं हो सकता, यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है। पहले ग़रीबी को खाद प्रदान करने वाले कारणों पर कुठाराघात करना होगा उसके उपरान्त ही किसी संघर्ष के सफ़ल होने की अपेक्षा की जा सकती है। 
ग़रीबी उन्मूलन का एक अत्यंत सरल और प्रकृतिक उपाय ‘ज़कात’ के रूप में इस्लाम ने प्रस्तुत किया है। इसमें भी एक ग़रीबी रेखा का निर्धारण किया गया है जिसमें साढ़े-सात तोला या उससे कम सोना रखने वाला व्यक्ति ग़रीब माना गया है और इस रेखा से ऊपर के सभी व्यक्तियों के लिए अनिवार्य किया गया है कि वह ऐसे ग़रीबों को साल में एक बार अपनी ‘बचत’ का ढाई प्रतिशत दान कर दे। इस्लाम में ज़कात को इबादत माना गया है जिस प्रकार नमाज़, रोज़ा और हज इबादत की श्रेणी में आते हैं। 
इस्लाम में ज़कात का उद्देश्य गरीबों की सहायता और उनका उत्थान है जिससे उनको ग़रीबी से बाहर निकाला जा सके। इस प्रावधान के अंतर्गत प्राप्त की गई रकम पर न तो कोई ब्याज देना होता है, न कुछ गिरवी रखना होता है, न ही कभी उसे वापस करना होता है, बल्कि वह व्यक्ति उस रकम का पूरा मालिक बन जाता है। ज़कात के पैसों से गरीबों की न सिर्फ़ तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ती होती है, बल्कि उन्हें छोटा-मोटा व्यापार करने का भी अवसर होता है। पूरे देश में निकाली जाने वाली ज़कात की वसूली और वितरण का सरकार यदि कोई सुनियोजित और संगठित व्यवस्था करती तो इससे ग़रीबी उन्मूलन के क्षेत्र में एक क्रांति लाई जा सकती है। 
एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग पचास हज़ार करोड़ की विशाल रकम ज़कात के रूप में गरीबों में वितरित की जाती है पर केन्द्रीय व्यवस्था के अभाव में इसका अपेक्षित लाभ देखने में नहीं आता। इसकी उपयोगिता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 2020-21 के अपने बजट में महाराष्ट्र सरकार ने एससी/एसटी/ओबीसी और अल्पसंख्यकों का कल्याण, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण तथा समाज कल्याण और पोषण के तीन विभाग का संयुक्त बजट 45 हज़ार करोड़ निर्धारित किया है, जो कि भारत में वितरित की जाने वाली ज़कात की रकम के लगभग समान है। अत्यंत गरीब व्यक्तियों को यदि सुनियोजित रूप से पचास-पचास हज़ार रुपए से लघु-उद्योग कराया जाए, तो प्रतिवर्ष सिर्फ़ ज़कात की सामूहिक पचास हज़ार करोड़ की रकम से लगभग एक करोड़ लोगों के लिए रोज़गार की व्यवस्था की जा सकती है। 
ज़कात व्यवस्था में धन का प्रवाह अमीरों से गरीबों की ओर होता है जबकि विश्व में स्थापित वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में धन का प्रवाह इसके विपरीत गरीबों से अमीरों की ओर होता है। गरीब और अमीर के बीच की खाई के लगातार बढ़ते रहने का यही कारण है। ज़कात इस कारण पर विराम लगा देती है और कुछ ही वर्षों में गरीबों की स्थिति में सुधार आने लगता है। हज़रत मुहम्मद के ज़कात व्यवस्था को लागू करने पश्चात् कुछ ही दहाइयों के अन्दर अरब में ग़रीबी का समापन हो गया था और एक समय ऐसा भी आया था कि इस्लाम की निर्धारित ग़रीबी रेखा के नीचे लोगों की संख्या लगभग समाप्त हो गई थी। इतिहास की किताबों में यह आश्चर्यजनक सत्य आज भी लिखा मिल जाता है कि उस समय लेने वालों की अपेक्षा देने वाले हाथ अधिक हो गए थे। 
इस्लाम की शिक्षा है कि एक व्यक्ति जो भी रोज़ी कमाता है उसमें समाज के ग़रीबों का भी हिस्सा होता है और यदि उनका हिस्सा उन तक न पहुँचाया गया तो यह रोज़ी अपवित्र हो जाती है। ज़कात इस रोज़ी को पवित्र कर देती है। ज़कात की रकम वैसे मात्र ढाई प्रतिशत ही निर्धारित की गई है, पर इस्लाम अपने मानने वालों से यह अपेक्षा रखता है कि गरीबों, कमज़ोरों और अनाथों की सहायता के लिए इससे अधिक भी दान करें और इसकी उच्चतम श्रेणी यह है कि आदमी अपनी आवश्यकता से अधिक सब कुछ दान कर दे। इस्लाम पूरे समाज का यह कर्तव्य मानता है कि उनके बीच में कोई भूखा और परेशान न रहे और पूरा समाज आगे बढ़कर ऐसे लोगों की सहायता करे। इस्लाम की यही वह शिक्षा है जो ग़रीबी को दूर करने में सहायक होती है।    
ज़कात की इस पूरी व्यवस्था में गरीबों के उत्थान और ग़रीबी के उन्मूलन की आज भी उतनी ही क्षमता है जितनी हज़रत मुहम्मद के समय थी। एक प्रावधान से जब ग़रीबी दूर करना इतिहास में सत्यापित है, तो उसका लाभ आज भी लोगों तक पहुंचाने में कोई संकोच आड़े नहीं आना चाहिए।   

  • 8802281236

  • ई मेल : islamdharma@gmail.com